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________________ BREFE यहाँ ज्ञातव्य है कि राजा महाबल तीर्थंकर ऋषभदेव का ९ वाँ पूर्वभव का जीव है। | स्वयंबुद्ध मंत्री ने महाराजा महाबल को अत्यन्त प्रसन्न देखकर कहा - "हे विद्याधरों के स्वामी ! आपको जो यह लक्ष्मी और वैभव प्राप्त हुआ है, उसे आप केवल पुण्य का ही फल समझिये; क्योंकि जितने भी अनुकूल संयोग प्राप्त होते हैं, वे पुण्य से ही प्राप्त होते हैं - ऐसा जिनेन्द्र की वाणी में स्पष्ट उल्लेख है। हमारा प्रयत्न या पुरुषार्थ तो उसमें मात्र निमित्तरूप कारण है। अन्यथा प्रयत्न तो सभी करते हैं, परन्तु सबको तदनुसार ऐसे सुखद संयोग प्राप्त कहाँ होते हैं ? हे राजन् ! धर्मभावना से ही इच्छानुसार सम्पत्ति की प्राप्ति होती है, सम्पत्ति से पाँचों इन्द्रियों के सुहावने भोग एवं अनुकूल स्त्री, पुत्र और सैंकड़ों अनुकूलताएँ प्राप्त होती हैं - धर्म की ऐसी ही परम्परा है। राज्य सम्पदायें, भोग, योग्यकुल में जन्म, सुन्दरता, पाण्डित्य, दीर्घ आयु और आरोग्य - ये सब पुण्य के ही फल हैं। धर्म के बिना आत्मशान्ति तो होती ही नहीं, लौकिक || सम्पदायें भी प्राप्त नहीं होती। जिससे स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्षपुरुषार्थ की निश्चित सिद्धि होती है, उसे धर्म कहते हैं। धर्म वही | है जिसके मूल में दया है। सम्पूर्ण प्राणियों पर अनुकम्पा करना, उनकी रक्षा का प्रयत्न करना दया है। इस दया के लिए ही उत्तम क्षमा आदि दस गुण कहे हैं। इन्द्रियों को जीतना क्षमाधारण करना, हिंसा नहीं करना, तप-दान-शील-ध्यान और वैराग्य - ये सब दयारूप व्यवहार धर्म के चिह्न हैं। हे महाभाग ! प्राप्त हुए राज्य आदि को धर्म का फल जानकर, अपनी भावना सदैव धर्मपालन करने की होना चाहिए। हे राजन् ! यदि आप यह चंचल राज्यलक्ष्मी और वैभव को स्थिर रखना चाहते हैं तो आपको अहिंसा धर्म का पालन करना ही चाहिए।" इसप्रकार स्वामी का हित चाहनेवाले सम्यग्दृष्टि स्वयंबुद्ध मंत्री सत्परामर्श देकर चुप हो गया। ___ तब महामति नाम का नास्तिक मंत्री बोला - "हे देव ! जब धर्मी हो तभी तो धर्म हो सकता है। जब आत्मारूप धर्मी का अस्तित्व ही नहीं है तो यह सब धर्म कौन करेगा और उस धर्म का फल भी कौन प्राप्त करेगा ?" यह मंत्री ‘खाओ, पिओ और मौज उड़ाओ' वाले चार्वाक मत का माननेवाला चार्वाक था। सर्ग चार्वाक के मतानुसार आत्मा के पूर्वभव और परभव का अस्तित्व ही नहीं होता । इसकारण पुण्य-पाप को | FFEREN VEFFEE
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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