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________________ (२३१ श ला का पु रु ष (२० तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा मुक्ति का मार्ग एवं मोक्षकल्याणक एक श्रोता ने भगवान ऋषभदेव से पूछा - "प्रभो ! मुक्ति का मार्ग क्या है ?" उनके प्रश्न के उत्तर में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि में आया - “पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सप्ततत्त्व एवं नव पदार्थों को भिन्न-भिन्न रूप से जानकर श्रद्धान करना एवं व्रतों का आचरण करना व्यवहार रत्नत्रय है तथा पर-पदार्थों की चिन्ता छोड़कर अपने आत्मा का ही श्रद्धान एवं उसी के स्वरूप का ज्ञान तथा मन को उसी में मन करना निश्चय रत्नत्रय है । ये रत्नत्रय ही मुक्ति का मार्ग है, अत: इसे स्थिर चित्त से समझना होगा । यह चित्त हवा के समान चंचल है। ऐसे चंचल चित्त को स्थिर करने का उपाय तत्त्वविचार है । तत्त्वाभ्यास | से परपदार्थों के विकल्प निरर्थक जानकर मन वहाँ से हटाकर आत्मा में लगने लगता है।' श्रोता ने पुनः प्रश्न किया - “जब तत्त्वाभ्यास से ही मन आत्मा में लगने लगेगा तो फिर घोर तपश्चर्या करने का क्या प्रयोजन रहा ? तप से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ?" दिव्यध्वनि में उत्तर आया - "इच्छाओं का निरोध करना तप है। जब इच्छाओं का निरोध होगा, मन में कोई लौकिक भोगोपभोगों की इच्छा ही नहीं उठेगी तो मन आत्मा में अपने आप लगेगा। अपने मन को आत्मा में केन्द्रित करना - यही तपस्या का प्रयोजन है । यदि मन मरकट नियंत्रण में नहीं हुआ तो बाह्य तपस्या निरर्थक है। उससे मात्र लोगों की सहानुभूति एवं श्रद्धा तो मिल सकती है; परन्तु निराकुल सुखरूप प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती । मन के विकल्प और इन्द्रियों के विषय कषायों को उत्पन्न करते हैं, कषायों और योगों से आत्म प्रदेशों Rpm to 45 4 घ भ दे व की दि व्य ध्व नि सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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