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________________ (२३० श ला का दिव्यध्वनि से उत्तर मिला- नहीं, नारकियों को एवं देवों को औदारिक और आहारक शरीर नहीं है, उनके वैक्रियक, तैजस व कार्माण ये तीन शरीर ही होते हैं। मनुष्य व तिर्यंच के वैक्रियिक और आहारक | शरीर नहीं होता अतः इनके औदारिक, तैजस व कार्माण शरीर होते हैं । पु उत्तम संहनन को धारण करनेवाले मुनियों को तत्त्व में संशय होने पर उनके मस्तक से एक हस्त प्रमाण | शुभ सूक्ष्म शरीर का उदय होकर केवली या श्रुत केवली के समीप जाता है और उनका संशय निवृत्त होते रु ही वापिस आ जाता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं । इसप्रकार आहारक, औदारिक, वैक्रियक, तैजस व कार्माण के भेद से शरीर के पाँच भेद हैं। ष लोक में उपर्युक्त जीवद्रव्य सहित छहद्रव्य एकमेक से होकर सर्वत्र भरे हैं; परन्तु एक द्रव्य और उसका गुण दूसरे द्रव्य या गुणरूप नहीं हो सकता । सब अपने-अपने स्वरूप में पूर्ण स्वतंत्र हैं। जिसप्रकार दूध से भरे घड़े में मधु को भर दिया जाये तो वह भी उसी घड़े में समा जाती है, उसीप्रकार आकाश द्रव्य में सभी द्रव्य समा जाते हैं। भले ही एक-एक द्रव्य का विस्तार इतना है कि वह अकेला ही लोकपूर्ण हो जाता है, तथापि आकाश की अवगाहन शक्ति अपार है, असीमित है कि उसमें सभी द्रव्य समा जाते हैं । भरतेश पुत्र सचमुच धन्य हैं, जिन्होंने समवसरण में पहुँच कर साक्षात् तीर्थंकर का दर्शन किया । | दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य पाया । वस्तुतः अनेक जन्मों से जिनमें जैनतत्त्व ज्ञान के संस्कार होते हैं, वे | ही तीर्थंकर के पादमूल में पहुँचते हैं। ऐसे पुत्रों के जनक भरतेश्वर भी धन्य हैं। उन सब भरतेश पुत्रों ने भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर वैराग्य से प्रेरित होकर वहीं दीक्षा ले ली और अपना आत्मकल्याण कर लिया । भरतेश्वर सदा यह भावना भाते रहे कि हे परमात्मन! आप निरक्षर ज्ञान के धनी हैं, परमपवित्र, पाप क्षय के लिए सनिमित्त हैं, इसलिए हे प्रभो! आप हमारे अन्तरंग में सदैव बने रहो। आ दी श्व र की दि व्य ध्व सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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