SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१७१ प्रत्येक प्राणी की अन्तिम इन्द्रिय बहुत तेज होती है, इस सिद्धान्त के अनुसार एक तो साधारण मनुष्य श | की कर्णेन्द्रिय स्वाभाविक तेज होती है; फिर चक्रवर्ती की तो बात ही जुदी है । भरतजी की चक्षुइन्द्रिय इतनी ला तेज थी कि वे अयोध्या के राजमहल से पूर्व दिशा में उगते सूर्य विमान के अन्दर विराजमान जिनप्रतिमा के दर्शन कर लेते थे तो उनकी कर्णेन्द्रिय का तो कहना ही क्या ? कर्णेन्द्रिय भी ऐसी ही प्रबल थी । अतः उन्होंने उन सैनिकों की बातें सुन लीं । का अ पु ष उन्होंने विचार किया कि इन सैनिकों को मुझे अपनी शक्ति का परिचय तो देना ही होगा - नित्यकर्म | से निर्वृत्त होकर भरतजी राजदरबार में विराजमान हुए। मंत्रियों ने ऐसा अनुभव किया कि आज महाराज | संभवत: बाहुबली के कारण कुछ उदास हैं । अत: उन्होंने कहा - "महाराज ! आप हमें तो निश्चिन्त रहने का आश्वासन देते हैं और आप स्वयं उदास हैं, इसका क्या कारण है ?" रु तब चक्रवर्ती भरत ने कहा - " मेरी उदासी का कारण बाहुबली का समर्पण न करना नहीं है, आज | मेरी कनिष्ठ उंगली अकड़ गई है, टेढ़ी हो गई है। बहुत प्रयत्न करने पर भी सीधी नहीं हो रही। मुझे इस बात की चिन्ता है । यदि कोई सीधी कर सकें तो प्रयास करके देखें।" भ र ते श Fancy 40 हु ब का अ सभी मंत्रियों ने प्रयास किए, पहलवानों को बुलाया, सैनिकों ने अपनी ताकत आजमायी; परन्तु कोई भी उंगली सीधी नहीं कर सका। अन्त में चक्रवर्ती भरत ने कहा- “एक मजबूत लोहे की सांकल लाओ ली और सभी हाथी उसमें जोत दो, उन्हें हांकों, संभव है हाथियों के द्वारा खींचने से उंगली सीधी हो जावे।" सांकल का जैसे ही चक्रवर्ती के हाथ से स्पर्श हुआ कि वह लोह शृंखला स्वर्ण श्रृंखला में बदल गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। फिर चक्रवर्ती की समस्त सेना ने अपनी-अपनी ताकत आजमायी । हाथी घोड़ों का उपयोग भी किया गया, पर सफलता नहीं मिली। जब सैनिक सांकल खींच रहे थे तब चक्री ने | उंगली को थोड़ा खींच दिया तो सब सैनिक साष्टांग नमस्कार की स्थिति में आ गये और उंगली को थोड़ा ढीला कर दिया तो सब चित्त होकर शवासन में लेट गये। तब सबकी समझ में आ गया कि असलियत क्या है ? न्द सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy