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________________ प्रवचनसार का सार कालिदास ने सुन्दरता को इसी आधार पर परिभाषित किया है - 'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदीयरूपं रमणीयतायाः।' जो क्षण-क्षण में नया-नया लगे उसी का नाम रमणीयता है। मोक्षमार्गप्रकाशक जितने बार पढ़ते हैं; उतनी बार नया-नया लगता है, नये-नये प्रमेय ख्याल में आते हैं। इस भगवान आत्मा में प्रतिक्षण नूतन उत्पाद होता है। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि नई चीज अच्छी होती है कि पुरानी ? चावल पुराने अच्छे होते हैं, सब्जी नई ताजी अच्छी होती है। यदि पुराने अच्छे होते हों तो यह भगवान आत्मा इतना पुराना है कि जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं और यदि कोई कहे कि भाईसाहब ! हमें पुराना बिल्कुल पसंद नहीं है, तब आचार्य कहते हैं कि आत्मा इतना नया है कि एक समय भी पुराना नहीं है। नया होकर भी पुराना है और यह पुराना होकर भी नया है। ऐसा इस वस्तु का स्वभाव है। ऐसी कोई विचित्र महिमा इस वस्तुस्वरूप में पड़ी है। यह सामान्यज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार का विषय है। अब इसकी चर्चा गाथा १११ से ११३ के आधार पर करते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि सत् का उत्पाद होता है या असत् का? इस प्रश्न का आशय यह है कि जो उत्पन्न हुआ है, उसकी सत्ता पूर्व में थी या वह सर्वथा नया पैदा हुआ है ? कुछ लोग इसपर कहेंगे कि जो वस्तु थी, उसका पैदा होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता और कुछ लोग कहते हैं कि यदि नई चीज पैदा होती है तो गधे का सींग भी पैदा होना चाहिए। यदि गुलाब का फूल खिलता है तो आकाश का फूल भी खिलना चाहिए। गाय के सिर पर सींग पैदा होता है; परंतु गधे के सिर पर नहीं होता। गाय के सिर पर जो सींग उठा, वह गाय के माथे में पहले था; इसलिए वह उगा अर्थात् वहाँ वे तत्त्व विद्यमान थे। जो बच्चा है, उसके होठों में बारहवाँ प्रवचन वे तत्त्व विद्यमान हैं, जिनमें से मूंछे निकलेगी; लड़कियों में वे तत्त्व विद्यमान नहीं हैं। लड़कियों में वे तत्त्व विद्यमान हैं, जिनके कारण उनके विशिष्ट अंग विकसित होते हैं। लड़कों में ऐसे तत्त्व विद्यमान नहीं हैं कि जिनके कारण उनके विशिष्ट अंग विकसित हों। जब वे दोनों पैदा होते हैं; तब भले ही वे अंग दिखाई नहीं देते हों तो भी सम्पूर्ण जगत इसे जानता है। मूल प्रश्न यह है कि सत का उत्पाद है या असत् का उत्पाद ? पहले पूँछे नहीं थी और फिर मूंछे उगी; इसलिए असत् का उत्पाद है। यदि वह वस्तु नहीं थी तो केवली भगवान ने ऐसी वस्तु को कैसे जाना, जो नहीं थी। मान लीजिए कुछ विशिष्ट दिनों के बाद हमें केवलज्ञान होनेवाला है। यदि भगवान महावीर से इस बारे में पूछा जाता तो वे बता सकते थे। इससे आशय यह है कि उस समय ऐसी कोई चीज विद्यमान थी; जिसके आधार पर यह जाना गया कि केवलज्ञान होगा। वह सत् था, इसलिए स्वकाल में प्रगट हो गया; इसलिए सत् का उत्पाद है, द्रव्यदृष्टि से हर पर्याय सत् का उत्पाद है और पर्यायदृष्टि से देखें तो असत् का उत्पाद है - यह मुख्य विषय है, जिसे १११वीं गाथा के भावार्थ में स्पष्ट किया है - “जो पहले विद्यमान हो, उसी की उत्पत्ति को सत्-उत्पाद कहते हैं और जो पहले विद्यमान न हो, उसकी उत्पत्ति को असत्-उत्पाद कहते हैं। जब पर्यायों को गौण करके द्रव्य का मुख्यतया कथन किया जाता है, तब तो जो विद्यमान था, वही उत्पन्न होता है, क्योंकि द्रव्य तो तीनों काल में विद्यमान है।); इसलिए द्रव्यार्थिकनय से तो द्रव्य को सत्- उत्पाद है और जब द्रव्य को गौण करके पर्यायों का मुख्यतया कथन किया जाता है, तब जो विद्यमान नहीं था, वह उत्पन्न होता है (क्योंकि वर्तमान पर्याय भूतकाल में विद्यमान नहीं थी), इसलिए पर्यायार्थिकनय से द्रव्य के असत्-उत्पाद है। 95
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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