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________________ १९२ प्रवचनसार का सार उपस्थित होता है। इसी के आधार पर वे कहते हैं कि सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है। सम्पूर्ण जगत एक है। जैनदर्शन महासत्ता के रूप में उनके इस पक्ष को स्वीकार करता है। अस्तित्व नामक गुण सबके अन्दर विद्यमान है। बस! इतना ही जैनदर्शन का पक्ष है। इसे ही कथंचित् हम सब एक हैं - ऐसा कहा जाता है; परन्तु यह सब असद्भूतव्यवहार की अपेक्षा है। इस अपेक्षा का यहाँ इतना कम वजन है कि इसे यहाँ असद्भूत' यह नाम दिया गया है। हमारा पर के साथ जो संबंध है; वह महासत्ता के आधार पर है अथवा मात्र जानने के आधार पर है। इसे आचार्यदेव ने इस ग्रन्थ की २३वीं गाथा में स्पष्ट किया है - आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।।२३।। आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है; इसलिए ज्ञान सर्वगत - सर्वव्यापक है। इसकी चर्चा ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार में कर चुके हैं। जैनदर्शन में यह महासत्ता की विवक्षा कथंचित् है और इस विवक्षा से हम सब एक हैं। हमने सबको जाना अर्थात् सब आत्मा के हो गये। आत्मा सर्वगत हो गया और सब पदार्थ आत्मगत हो गये। इस अपेक्षा में वजन असद्भूतव्यवहारनय का है। द्रव्य-गुण-पर्याय से युक्त स्वरूपास्तित्ववाली वस्तु ही असली इकाई है। इसकी विस्तार से चर्चा पूर्व में हो चुकी है। यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के संदर्भ में सभी यही समझते हैं कि पूर्व पर्याय का व्यय, उत्तर पर्याय का उत्पाद और वस्तु की ध्रुवता - यही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है। प्रवचनसार में इस बात पर अधिक वजन दिया है कि तीनों का समय एक है अर्थात् एक समय में तीनों हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बारहवाँ प्रवचन तीनों प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है । गुण और पर्याय भी प्रतिसमय विद्यमान रहते हैं। वस्तुत: कोई ऐसा समय नहीं है कि जब ये सब उस वस्तु में नहीं रहते हों। जिनमें ये नहीं रहते हैं; वह वस्तु ही नहीं है, अर्थ ही नहीं है। ____ कुछ लोग कहते हैं कि जैनदर्शन में अपेक्षा लगाकर सबकुछ कहा जा सकता है। पर यह बात सत्य नहीं है; क्योंकि हम ऐसी अपेक्षा का प्रयोग नहीं कर सकते हैं कि आत्मा कथंचित् चेतन है और कथंचित् अचेतन भी है। अचेतनत्व नाम का कोई धर्म आत्मा में है ही नहीं। जो धर्म वस्तु में होता है, अपेक्षा सिर्फ उन्हीं धर्मों पर लगती है, दूसरे धर्मों पर नहीं लगती है। प्रथम उस वस्तु में वह धर्म है या नहीं - यह देखना पड़ेगा, तभी उसमें अपेक्षा लगेगी, अन्यथा नहीं। ४७ नयों का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि वस्तु में अभाव नामक एक गुण है, धर्म है, स्वभाव है, शक्ति है। नास्तित्व धर्म की मात्र इतनी ही विवक्षा नहीं है कि पर मैं नहीं हूँ, उसका यह भी कार्य है कि इसमें किंचित्मात्र भी पर का प्रवेश नहीं हो। वह मजबूत वज्र की दीवार है। जब 'पूर्वपर्याय' ऐसा कहा गया; तब उसमें अनादिकाल से लेकर अबतक की सभी पर्यायें सम्मिलित होती हैं। निगोद से यह जीव दो हजार सागर के लिए त्रसपर्याय में आता है। यह जीव इस दो हजार सागर में दो तिहाई काल देवगति में बिताता है एवं एक तिहाई काल नरक में बिताता है। इससे यह सिद्ध है कि प्रत्येक जीव का सर्वाधिक काल देवलोक में ही बीतता है। यदि यहाँ कुछ भी नहीं करेंगे और फिर से एकेन्द्रिय पर्याय में जाएँगे तो भी हमारा दो-तिहाई काल देवलोक में ही बीतना है। अब दुनिया में 93
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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