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________________ प्रवचनसारका सार १६८ अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह सत्ता द्रव्य से भिन्न है या अभिन्न ? भिन्नता दो प्रकार की होती है एक पृथकता एवं दूसरी अन्यता। पृथकता अर्थात् दो पदार्थ जुदे-जुदे हैं एवं अन्यता अर्थात् जिनकी सत्ता एक है तथा स्वभाव भिन्न हैं। जिनकी सत्ता पृथक् है, उनमें पृथक्ता होती है एवं जिनकी सत्ता एक है, उनमें अन्यता होती है। हिन्दुस्तान व पाकिस्तान इन दोनों में पृथकता है एवं हिन्दुस्तान व राजस्थान तथा राजस्थान व मध्यप्रदेश इन दोनों में अन्यता है। द्रव्य तथा गुणों के मध्य एवं द्रव्य तथा पर्याय के मध्य अन्यता होती है, पृथकता नहीं। दो द्रव्यों के मध्य पृथकता होती है, अन्यता नहीं। एक द्रव्यों की दो पर्यायों में अन्यता होती है, पृथकता नहीं। एक द्रव्य के दो गुणों में अन्यता होती है, पृथकता नहीं। अब यहाँ विषय की स्पष्टता के लिए यह प्रश्न उपस्थित करता हूँ कि मेरा ज्ञानगुण एवं आपका दर्शनगुण इनमें पृथक्ता है या अन्यता है ? यहाँ पृथक्ता है; क्योंकि इसमें मेरा ज्ञानगुण एवं आपका दर्शनगुण लिया है। यदि यहाँ मेरा ही दर्शनगुण एवं मेरा ही ज्ञानगुण लेते तो अन्यता होती। एक द्रव्य गुण पर्याय में जहाँ मात्र भाव से ही भिन्नता होती है एवं द्रव्य-क्षेत्र व काल से अभिन्नता होती है, वहाँ अन्यता है। ज्ञान का जाननेरूप भाव है एवं दर्शन का देखनेरूप भाव है - इसप्रकार भावों में भिन्नता है। कई लोग अन्यता और पृथकता में अंतर नहीं जानते तथा चाहे जहाँ/चाहे जैसा प्रयोग करते हैं। ___ मैं देह से इसलिए पृथक् हूँ; क्योंकि देह व आत्मा - ये दो पृथक्पृथक् द्रव्य हैं। राग से आत्मा इसलिए अन्य है; क्योंकि इसमें दो द्रव्य नहीं है। पृथक्त्व का और अन्यत्व का लक्षण निम्नांकित गाथा में आचार्य स्पष्ट करते हैं - दसवाँ प्रवचन पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं ।।१०६।। (हरिगीत) जिनवीर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता। अतद्भाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हों।।१०६।। विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व है - ऐसा वीर का उपदेश है। अतद्भाव अन्यत्व है, जो उसरूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ? जिनके प्रदेश भिन्न हैं, उनमें पृथक्त्व है और जो अतद्भाव है, उसे वीरशासन में अन्यत्व कहा गया है। अन्यत्व हो वहाँ एक हो सकते हैं; परंतु पृथक्त्व में एक नहीं हो सकते हैं। अतद्भाव है सो अन्यत्व है। कथंचित् सत्ता द्रव्यरूप नहीं है एवं द्रव्य सत्ता नहीं है; अत: वे एकरूप नहीं है। द्रव्य व सत्ता में पृथक्ता नहीं है, अन्यता है। वह अन्यता भी कथंचित् है। कथंचित् दोनों एक हैं एवं कथंचित् दोनों अलग हैं। टीका में आचार्यदेव ने स्पष्ट लिखा है कि - 'विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व का लक्षण है। वह तो सत्ता और द्रव्य में सम्भव नहीं है।' यहाँ पृथक्ता इसलिए संभव नहीं हैक्योंकि सत्ता व द्रव्य के प्रदेश एक हैं। ध्यान देने की बात यह है कि 'भिन्नता' शब्द का प्रयोग पृथकता और अन्यता - इन दोनों के स्थान पर खुलकर समान रूप से किया जाता रहा है; अत: यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि भिन्नता का अर्थ प्रकरण के अनुसार किया जावे। अब, आगे आचार्य विस्तार से इस बात को सिद्ध करेंगे कि सत्ता व द्रव्य में अन्यता है, पृथकता नहीं है। उत्पाद भी सत् है, व्यय भी सत् है एवं ध्रौव्य भी सत् है। तीनों यदि सत् हैं तो तीनों में तीन सत् हैं या दो सत् हैं या एक सत् है ? 81
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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