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________________ १५७ १५६ प्रवचनसार का सार हैं। इन सभी को 'मनुष्य' इस महासत्ता में समाहित कर लिया; इसलिए यह शुद्ध नहीं है; यह अशुद्धमहासत्ता है। वस्तुतः हम महासत्ता से अवान्तरसत्ता अर्थात् सादृश्यास्तित्व से स्वरूपास्तित्व तक आएँ, अपने अस्तित्व तक आएँ; ऐसी स्थिति में जितने भी संबंध स्थापित होंगे, वे सब सदृशता के आधार पर स्थापित होने के कारण महासत्ता के आधार पर ही स्थापित होंगे। ___यह सब शुद्धमहासत्ता तथा अशुद्धमहासत्ता के आधार पर ही होता है। स्वरूपास्तित्व के अतिरिक्त कोई भी हमारा नहीं है। इसे छोड़कर सभी संबंध असद्भूत हैं। समयसार की शैली में द्रव्य-गुण-पर्याय के सन्दर्भ में स्व के दो भेद किए हैं। जिसके आश्रय से विकल्प उत्पन्न हो - ऐसा स्व एवं जिसके आश्रय से निर्विकल्प की उत्पत्ति हो - ऐसा स्व । स्वभाव के आश्रय से विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए वह आश्रय योग्य स्व है और पर्याय के आश्रय से, गुणभेद के आश्रय से विकल्प की उत्पत्ति होती है; इसलिए वह स्व आश्रय करने योग्य नहीं है; इसकारण वह स्व एकप्रकार से पर ही है। यदि प्रदेशों को और गुणों को अभेदरूप से जाना जाय तो वहाँ विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती है; अत: वे स्ववस्तु में समाहित हैं। इसप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अखण्डता दृष्टि का विषय है एवं उसमें अपनापन स्थापित करना सम्यग्दर्शन है। यह समयसार की शैली है। पर के साथ में हमारा जो महासत्ता संबंधी संबंध है; उससे इन्कार कर देना भी मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व के छूटे बिना अन्य मिथ्यात्व छूटेगा ही नहीं। यह भाव का भेद जबतक दृष्टि में उपस्थित रहता है, तबतक विकल्प की उत्पत्ति होती है। इस जीव को वह भाव का भेद दृष्टि में से निकालना नौवाँ प्रवचन है। वस्तु में से उसे बाहर नहीं करना है; क्योंकि वस्तु में से वह कभी बाहर हो ही नहीं सकता है। पर से एकत्व तोड़ना है। इसमें एकत्व को निकालना नहीं है; यह वस्तु में है ही नहीं - ऐसा जानना है। भक्ष्य पदार्थ दो प्रकार के होते हैं। एक ऐसा भक्ष्य है, जिसे खाना ही नहीं है; इसकारण उसे अभक्ष्य भी कहते हैं एवं दूसरा ऐसा भक्ष्य जो खाने के बाद पेट में चला जाए, उसके बाद कुल्ला करना पड़े। उससे भी यदि मुँह जूठा रहेगा तो जिनवाणी नहीं सुन सकते हैं। आठ प्रहर के शुद्ध घी का बना हलुआ यदि मुँह में रखे और जिनवाणी पढ़े तो ऐसा नहीं चलेगा। उस वस्तु को मुँह में रखे हुए मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकते हैं। यह भक्ष्य वस्तु है; इसलिए पेट में रखो तो चलेगा; परन्तु जो माँस मदिरा आदि हैं; वे पेट में भी रखकर आओ और जिनवाणी पढ़ो तथा मंदिर में आओ तो नहीं चलेगा; क्योंकि वह व्यक्ति जिनवाणी श्रवण के भी योग्य नहीं है। यदि वह व्यक्ति जिनवाणी सुनेगा तो भी उसे सुनने का कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं होगा। स्वरूपास्तित्व व सादृश्यास्तित्व तथा अतद्भाव व पृथक्त्व - इन दोनों में बहुत अंतर है। यहाँ पर्यायमूढता की चर्चा मात्र केवलज्ञान व राग तक ही सीमित नहीं है। ___संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में इस भाव को इसप्रकार स्पष्ट किया है - वर्णाद्या वा रागमोहादयोवा भिन्ना भावा:सर्व एवास्य पुंसः । तैनैवांतस्तत्त्वत: पश्यतोऽमि नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।। (दोहा) वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न । अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य ।।३७।। यहाँ आचार्य ने यह स्पष्ट कहा है वर्णादि और रागादि भावों से यह भगवान आत्मा भिन्न है। 75
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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