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________________ प्रवचनसार का सार ११८ क्योंकि मकान बनाना, सड़के बनाना - यह सब पापारम्भ है। यह गृहस्थ का कार्य है। साधु तो मात्र दूर से दर्शन कर सकता है। साधु यदि इन सबकी प्रेरणा देते हैं तो वह कृत-कारित-अनुमोदना समान होने के कारण पाप ही की श्रेणी में आता है। यहाँ तो उन मुनिराजों के सन्दर्भ में कहा गया है कि जिनका व्यवहारचारित्र पूर्णतः सम्यक् है एवं जो निर्दोष शुभचर्या में लगे हुए हैं; किन्तु मोह को नहीं छोड़ते हैं तो वे धूर्त अभिसारिका के चक्कर में फँस गए हैं। ऐसे लोग शुद्धात्मा को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? देखो ! यहाँ आचार्य ने स्पष्ट लिखा है कि ऐसी भूमिका में रहनेवालों को तो सम्यग्दर्शन सम्भव भी नहीं है। तो चारित्र की क्या बात करें ? अब आचार्य स्वयं के सन्दर्भ में कहते हैं कि - "अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम् । - इसलिए मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कसी है।" यहाँ आचार्य दर्शनमोह और चारित्रमोह - दोनों की चर्चा कर रहे हैं। आचार्यदेव ने यहाँ 'मैंने कमर कसी है।' यह शब्दप्रयोग किया है; अत: यह निश्चितरूप से चारित्रमोह की ही बात है; अत: इस उत्थानिका को ८० व ८१ दोनों गाथाओं की उत्थानिका समझना चाहिए। 'मैंने मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कसी है।' - ऐसा कहकर अमृतचन्द्राचार्य यह नहीं बताना चाहते हैं कि मैं कुछ करने जा रहा हूँ और न ही वे अपनी महिमा बता रहे हैं। इस भाषा के माध्यम से वे यह कहना चाहते हैं कि 'यदि तुम्हें आत्मा का कल्याण करना है तो मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कस लो।' जब कोई किसी सज्जन के पास यह पूछने जाता है कि 'भाई साहब! ऐसी-ऐसी परिस्थिति है, ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? आप मुझे सलाह दो।' तब वह सज्जन ऐसा ही कहता है कि 'भाईसाहब! मैं आपकी बात सातवाँ प्रवचन तो क्या बताऊँ। लेकिन यदि मैं ऐसी परिस्थिति में फंसा होता तो मैं ऐसा करता और ऐसा नहीं करता। मैं तो ऐसी जगह एक सैकेण्ड भी खड़ा नहीं रह सकता, मैं तो उस आदमी के पास जाता ही नहीं, मैं तो उसकी शक्ल ही नहीं देखता। अब आपको जो ऊंचे सो करो। आप मेरी सलाह पूछते हैं तो उसके हिसाब से तो आपको इस बात में उलझना ही नहीं चाहिए। आपको इस बारे में सोचना ही बन्द कर देना चाहिए।' इसीप्रकार आचार्यदेव कह रहे हैं कि मैंने तो मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कसी है। तात्पर्य यह है कि आपको भी यही करना चाहिए। __कपड़े बेचनेवाले दुकानदार भी इसी प्रवृत्ति के होते हैं। हमें धोती का जोड़ा लेना है; अत: हम उससे पूछते हैं कि मैं आपसे पूछता हूँ कि मुझे इसमें से कौन-सी धोती लेनी चाहिए। इस पर दुकानदार कहता है कि भाई साहब ! मैंने तो यह पहन रखी है, मुझे तो यही धोती-जोड़ा अच्छा लगता है। ___इसप्रकार आचार्यदेव ने 'बद्धा कक्षेयम्' कहकर इसी भाषा का प्रयोग किया है। आचार्य कहते हैं कि भाई, क्रियाकाण्ड में, देह की क्रिया में ही मत उलझे रहो । शुभभाव हो रहे हैं सो ठीक हैं। भूमिका के अनुसार वे होना ही चाहिए। तुम शुभभाव करके बड़ी गलती कर रहे हो - ऐसा हम नहीं कह रहे हैं; परन्तु शुभभाव में सन्तुष्ट होना, इसी में धर्म मानना बड़ी गलती है। इस पर यदि कोई कहे कि यदि आप ऐसा कहते हैं तो मैं पूजा करना छोड़ दूंगा तो हम कहते हैं कि छोड़ देना, उससे कोई आसमान टूटकर गिरनेवाला नहीं है - ऐसी धमकी क्यों देते हो? हम तो आपसे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि आप पूजा करना छोड़ दो। भाई ! मैं तो उसे धर्म मानना छोड़ दो - ऐसा कह रहा हूँ। यहाँ पूजा छोड़ने की बात नहीं है; क्योंकि जिस भूमिका में जैसा 56
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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