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________________ प्रवचनसार कासार को जो कहा न जा सके - ऐसा वचन से पार आनन्द होता है; वह आनन्द इन्द्र को, नागेन्द्र को, चक्रवर्ती को या अहमिन्द्र को भी नहीं होता। (छठर्वी ढाल, ११वाँ छंद) इन्द्र तो सम्यग्दृष्टि है, फिर भी वह आनंद इन्द्र को क्यों नहीं है ? यहाँ आचार्यदेव जो इन्द्र के सुख की बात कर रहे हैं, वह इन्द्र के लौकिक सुख के संदर्भ में कर रहे हैं। यहाँ इन्द्र के सम्यग्दर्शनजन्य सुख की चर्चा नहीं है। ___ लोक में जिसे सुख कहते हैं, वह सांसारिक सुख है; परन्तु सम्यग्दर्शनजन्य जो सुख सौधर्म इन्द्र स्वर्ग में भोग रहा है, वही सुख श्रेणिक राजा नरक में भोग रहा है लेकिन नरक में दुःख तथा स्वर्ग में सुख - ऐसा कहा जाता है, वह कथन लौकिक सुख-दुःख की बात है; परंतु यहाँ तो मुनि की भूमिकावाले अतीन्द्रियसुख को लेना है। विषयसामग्रीजनित सुख से अतीन्द्रियसुख अलग जाति का है। हमें जब सम्यग्दर्शन होगा, तब उस जाति का सुख ख्याल में आएगा; लेकिन अभी शास्त्र के आधार से तो यह निर्णय करना पड़ेगा कि वह सुख कोई अलग जाति का है, जिसे हम व्यवहार से मोक्ष का श्रद्धान कहते हैं। जैसे अतीन्द्रियज्ञान इन्द्रियज्ञान से अलग है, फिर भी वे दोनों ज्ञान ज्ञान का उल्लंघन नहीं करते हैं; वैसे ही इन्द्रियसुख और अतीन्द्रियसुख दोनों सुखगुण की पर्यायें हैं, सुखगुण का उल्लंघन नहीं करती हैं। इसी न्याय से सुखगुण की जो पर्याय दुःखरूप है, उसे भी सुख कह सकते हैं; क्योंकि वह सुखगुण की पर्याय है। ज्ञानगुण की पर्याय को ज्ञान भी कहते हैं और अज्ञान भी कहते हैं। वैसे ही सुखगुण की पर्याय को सुख भी कहते हैं और दुःख भी कहते हैं। सुखगुण की अतीन्द्रियसुखरूप पर्याय इन्द्रियसुख से जुदी जाति की है। वह अतीन्द्रिय सुख ही वास्तविक सुख है - यही सुखाधिकार में कहा है। छठवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन महाधिकार के सुखाधिकार के आरंभ से ही यह कहते आ रहे हैं कि जिनके अतीन्द्रियज्ञान है, उनके अतीन्द्रियसुख है। इसे ही सम्पूर्ण सुखाधिकार में आचार्यदेव ने अनेक तर्क और युक्तियों से सिद्ध किया है। यहाँ महत्त्वपूर्ण युक्ति यह है कि उनको वीतरागी होने के कारण कोई भी इच्छा नहीं रही है व सर्वज्ञ होने के कारण किसी भी प्रकार का अज्ञान नहीं रहा है; अत: उन्हें किसी भी प्रकार का दुःख सम्भव नहीं है। शक्ति की दुर्बलतावश दुःख प्रगट होता है; लेकिन उन्हें अनंतवीर्य प्रगट हो गया है; इसलिए भी उन्हें कोई दुःख नहीं है। इसलिए जिन्हें अतीन्द्रियज्ञान है, उन्हें अतीन्द्रियसुख है। अब, इस सुखाधिकार में सांसारिक सुख की चर्चा करते हैं । वस्तुतः वह सांसारिकसुख सुख है ही नहीं, वह तो दु:ख ही है। जैसा कि निम्नांकित गाथा में कहा गया है - मणुआसुरामरिंदा अहिदुदा इन्दिएहिं सहजेहिं। असहता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥६३।। (हरिगीत) नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से। पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में रमें ।।६३।। स्वाभाविक इन्द्रियों से दुःखित होते हुये मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती), असुरेन्द्र और सुरेन्द्र उस दुःख को सहन नहीं करते हुये रम्यविषयों में रमण करते हैं। इसप्रकार वे सुखी नहीं हैं, दु:खी ही हैं। आचार्यदेव कहते हैं कि वे पाँच इन्द्रियों के विषयों में रमते हैं तथा पाँच इन्द्रियों के विषयों में रमणता दुःख के बिना संभव नहीं है। जिसप्रकार भोजन करना भूख के बिना संभव नहीं है, स्पर्शनइन्द्रिय का विषय सेवन Un
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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