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________________ प्रवचनसार का सार है कि अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान मात्र पर को ही जानते हैं। उनका विषय पुद्गलद्रव्य ही है, वे स्व को नहीं जानते। देखो ! पाँच ज्ञानों में ऐसे ज्ञान तो हैं, जो मात्र पर को ही जानते हैं, स्व को नहीं जानते; लेकिन ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो अकेला स्व को ही जानता हो और पर को नहीं जानता हो। मतिज्ञान स्व और पर दोनों को जानता है, छहों द्रव्य उसके विषय हैं। श्रुतज्ञान के भी छहों द्रव्य विषय हैं। अवधिज्ञान के विषय रूपी पदार्थ हैं, अरूपी नहीं अर्थात् पुद्गलद्रव्य ही उसका विषय हैं। मन:पर्ययज्ञान दूसरे के मन में स्थित विषय को जानता है.न कि अपने मन में स्थित पदार्थ को। केवलज्ञान के छहों द्रव्य विषय हैं। जगत में ऐसा कोई भी ज्ञान बताओ जो मात्र स्व को जानता हो, पर को नहीं जानता हो। जो लोग यह मानते हैं कि ज्ञान पर को जानता ही नहीं हैउन्हें उक्त तथ्य का गहराई से मंथन करना चाहिए। क्या मात्र पर को जाननेवाले अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ज्ञान ही नहीं हैं ? इसे और स्पष्ट करने के लिए प्रवचनसार गाथा ४१की यह तत्त्वप्रदीपिका टीका महत्त्वपूर्ण है - "जिसप्रकार विविध प्रकार का ईंधन ईंधनपने का उल्लंघन नहीं करने के कारण प्रज्ज्वलित अग्नि का दाह्य ही है; उसीप्रकार अप्रदेश सप्रदेश, मूर्त-अमूर्त, अनुत्पन्न और विनष्ट पर्याय समूह ज्ञेयता का उल्लंघन नहीं करने से अनावरण, अतीन्द्रिय ज्ञान सम्पन्न आत्मा के ज्ञेय ही होते हैं।" ईंधन तो लकड़ी भी होती है, कण्डा भी होता है, कोयला भी होता है, गैस भी होता है; लेकिन अग्नि की तरफ से ये सब न लकड़ी हैं, न कण्डा हैं, न गैस हैं; अग्नि की तरफ से इन सबका एक नाम ईंधन ही है। जो भी उस अग्नि से जलता है, उस सबका नाम ईंधन ही है। जिसप्रकार दुकानदार के पास आया हुआ हर आदमी ग्राहक है, डॉक्टर के पास आया हुआ हर व्यक्ति मरीज है और वकील के लिए चौथा प्रवचन प्रत्येक व्यक्ति क्लाईन्ट है; उसीप्रकार जो ईंधन का उल्लंघन नहीं करता है, वह अग्नि के लिए ईंधन ही है। इसीप्रकार केवलज्ञान के लिए हर पदार्थ ज्ञेय है। आपका पुत्र डॉक्टर है। उसके लिए अस्पताल में मुसलमान आए तो भी मरीज है, हिन्दु आए तो भी वह उसका मरीज है, दिगम्बर आए तो भी वह उसका मरीज है, श्वेताम्बर आए तो भी वह उसका मरीज है। ___आप अपने पुत्र से कहें कि - “यह तो मुसलमान है; इसका इलाज तुम क्यों करते हो?" तब पुत्र कहेगा कि - “पापा आप यहाँ से चले जाओ। मेरे यहाँ तो सिर्फ मरीज आते हैं; मुसलमान, हिन्दु, जैनी अथवा दिगम्बरश्वेताम्बर नहीं आते । मैं उन्हें हिन्दु-मुसलमान के रूप में नहीं देखता हूँ, मैं तो सिर्फ मरीज के रूप में देखता हूँ। मेरा कर्तव्य है कि मेरे शत्रु भी यदि मेरे अस्पताल में आएँ, आपातकालीन कक्ष में आएँ तो वे भी मेरे लिए मरीज ही हैं, मैं मेरी पूरी ताकत से उनका सही इलाज करूँगा।" अरे भाई ! इतने वीतराग तो आजकल के डॉक्टर भी हैं। ऐसे ही केवलज्ञान के लिए संपूर्ण लोकालोक ज्ञेय हैं। क्या गधे के सिर का सींग भी उनके ज्ञान का ज्ञेय बनेगा? वह तो है ही नहीं, फिर वह ज्ञान का ज्ञेय कैसे बनेगा? 'वह नहीं है '- ऐसे बनेगा। 'गधे के सिर पर सींग नहीं होता' - इसप्रकार वह उसके ज्ञान का विषय बनेगा। इसे हम इस उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं कि - “आप हमारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगे?" "हाँ ! देंगे।" तब वह प्रश्न करता है कि - "क्या आप सर्वज्ञ हैं ?" "मैं सर्वज्ञ होऊँ या नहीं होऊँ; पर मैं आपके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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