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________________ प्रवचनसार का सार ६१ स्वभाव अपने अंदर उन्हें जगह देने का नहीं है। ज्ञान का स्वभाव वहाँ जाने का भी नहीं है। इस ज्ञानस्वभाव व ज्ञेयस्वभाव को जान ले तो सारी आकुलता स्वयमेव ही नष्ट हो जाएगी। इसे स्पष्ट करनेवाली महत्त्वपूर्ण गाथा इसप्रकार है - गेण्हदिणेवण मुंचदि, ण परंपरिणमदि केवली भगवं। पेच्छदिसमंतदोसो, जाणदि सव्वं णिरवसेसं ।।३२।। (हरिगीत) केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें । चहं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।।३२।। केवली भगवान पर को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं हैं, परिणमन नहीं करते । वे मात्र पूर्णरूप से सबको, सभी ओर से जानते और देखते हैं। केवली भगवान संपूर्ण पदार्थों को बिना किसी विशेषता से, बिना किसी भेदभाव से निर्विशेष जानते हैं। इसको जानना, इसको नहीं जानना; इधर से जानना, उधर से नहीं जानना; आगे से देखना, पीछे से नहीं देखना - ऐसा वहाँ नहीं है। वहाँ चारों ओर से जानना होता है। केवली भगवान का यह स्वरूप है कि वे न ग्रहण करते हैं, न छोड़ते हैं और न ही परिणमित कराते हैं। संसार में, हमारा सबका यही धंधा है - यह ले लो, यह छोड़ो, यह ग्रहण करो, इसका ऐसा कर दो; उसका ऐसा कर दो, चौबीसों घंटे हम इसी विकल्प में लगे रहते हैं। हम यदि भगवान बन जाएँगे तो बड़ी दिक्कत आएगी; क्योंकि वहाँ न किसी का लेना, न देना, न किसी को परिणमित कराना, बस जानते-देखते रहना है। तब यह कहता है कि यहाँ पर गड़बड़ी होती रहे और हम मात्र जानते-देखते रहें - ऐसा तो हमसे नहीं हो सकता । यहाँ इतनी गंदगी है, कूड़ा-करकट है, हमसे तो नहीं देखा जाता है। तब तुम केवलज्ञानी मत बन जाना; नहीं तो बहुत मुश्किल हो तीसरा प्रवचन जाएगी; क्योंकि अभी तो ऐसी गंदगी दिखाई देती है जो आँख से दिखाई देती है। केवली भगवान को तो हमारे-तुम्हारे पेट की गंदगी भी दिखाई देती है। तुम्हें तो पेट से बाहर आती है, तब दिखाई देती है, नाक तो गंदगी से भरी हुई है, हमें-तुम्हें तो जब वह नाक से बाहर आती है, तब दिखाई देती है; परन्तु केवलज्ञानी को तो नाक के भीतर की भी नाक दिखाई देती है। ____ तब यह कहता है कि हम से तो देखा नहीं जाता, इसका अर्थ यह है कि हम देखेंगे तो कुछ ना कुछ करेंगे और तुम हमें करने नहीं दोगे इसलिए हम देखेंगे भी नहीं। उनसे कहते हैं कि यदि तुम्हें धर्म करना है तो किसी को भी देखने-जानने से इन्कार नहीं करना पड़ेगा, ऐसा करने की तुम्हें रंचमात्र भी अनुमति नहीं मिलेगी; क्योंकि यह तो आत्मा के ज्ञातास्वभाव से इन्कार है। यही इस अधिकार का मूलभूत विषय है। इसलिए आचार्य ने ८०वीं गाथा में कहा कि - अरहंत की पर्याय को जानो। हमारी तथा अरहंत दोनों की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप पर्याय एक-सी है। यहाँ एक अपेक्षा यह भी हो सकती है कि जैसे इस जीव को लग रहा है कि अरहंत से हम कुछ कम हैं। जैसे हम रागी-द्वेषी और वे वीतरागी, हम अल्पज्ञ और वे सर्वज्ञ; हम दुःखी और वे सुखी - ऐसे इसे जो अंतर देखकर दीनता आ रही है; उस पर आचार्य कहते हैं - ऐसी भी अनंती पर्यायें हैं, जो हममें और अरहंत भगवान में समानरूप से पाई जाती है। जिन पर्यायों में अंतर है; उन पर्यायों को क्यों देखते हो, जिनमें अंतर नहीं है, उन पर्यायों को देखो। तुम व्यापारी और हम पण्डित, तुम पैसेवाले और हम गरीब, तुम 27
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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