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________________ प्रवचनसार का सार ३७८ होने पर भी, जिनोक्त अनंत पदार्थों से भरे हुए विश्व को - जो कि अपने आत्मा से ज्ञेयरूप से पिया जाता होने के कारण आत्मप्रधान है, उसका जो जीव श्रद्धान नहीं करता, वह श्रमणाभास है।" ___टीका में अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा है कि कोई मुनिराज आगम के ज्ञाता भी हैं, संयमी भी हैं और तपस्वी भी हैं; लेकिन उन्हें आत्मा का ज्ञान नहीं है, तो वे हमारे लिए पूज्य नहीं हैं; अपितु श्रमणाभास हैं। ___ इस संदर्भ में मैं यह बताना चाहता हूँ कि आजकल कोई भी व्यक्ति आत्मा के ज्ञान का प्रश्न नहीं उठाता है; अपितु क्रिया के आधार पर ही एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। वे एक-दूसरे पर महाभ्रष्ट होने का आरोप लगाते हैं तथा अपनी क्रियाओं को ठीक बताते हैं। आत्मा का ज्ञान है या नहीं ?' यह तो मुद्दा ही नहीं है; बस सर्वत्र तप, संयम और आगमज्ञान की ही बात होती है। जो लोग शिथिलाचार के विरोधी हैं; वे भी श्रद्धा का प्रश्न नहीं उठाते हैं। उन्हें सिर्फ आचार की शिथिलता की ही चिंता है। किसी को भी तत्त्वज्ञान के श्रद्धान का विकल्प ही नहीं है। टीका में इस बात पर भी दृष्टिपात किया गया है कि जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि विश्व में अनन्तपदार्थ भरे हुए हैं। 'ज्ञेयरूप से पिया जाता होने के कारण' का तात्पर्य यह है कि सारी दुनिया अर्थात् सारे ज्ञेयों को आत्मा ने पी लिया है अर्थात् जान लिया है। यहाँ यह स्पष्ट किया जा रहा है कि कोई उन सारे लोकालोक को जाननेवाला हो, आचरण भी ठीक हो, शास्त्रज्ञान भी हो, तपस्वी भी हो; किन्तु यदि वह आत्मा को नहीं जानता हो तो वह श्रमणाभास है। यहाँ आत्मा को ही प्रधान इसलिए कहा; क्योंकि आत्मा ने ही सारे ज्ञेयों को पिया है अर्थात् जाना है। सकलज्ञेय को जाननेवाला होने पर भी जो आत्मा को नहीं जानता हो; वह तपस्वी, संयमी और आगमज्ञानी होने पर भी श्रमणाभास है। चौबीसवाँ प्रवचन ३७९ तदनन्तर, जो श्रामण्य से समान है; उनका अनुमोदन (आदर) न करनेवाले का विनाश बतलानेवाली गाथा २६५ की टीका का भाव इसप्रकार है - "जो श्रमण द्वेष के कारण शासनस्थ श्रमण का भी अपवाद करता है और उसके प्रति सत्कारादि क्रियायें करने में अनुमत नहीं है; वह श्रमण द्वेष से कषायित होने से उसका चारित्र नष्ट हो जाता है।" ___टीका के उपरोक्त कथन में अत्यधिक संतुलन है। इसमें आचार्यदेव यह कहते हैं कि कोई सर्वज्ञता को स्वीकार करता है, आत्मा को जानता है, आत्मानुभवी है; किन्तु उनके साथ किसी अन्य व्यक्ति का व्यक्तिगत मनमुटाव है तो वह कहता है कि उनसे हमारा कोई मतभेद नहीं है, बस वे हमें पसंद नहीं है - इसप्रकार मान के कारण यदि विरोध करता है तो वह गलत रास्ते पर है। ऐसा कहनेवाले भी बहुत लोग हैं कि उनकी सब बातें ठीक लगती है, कोई शिकायत नहीं है लेकिन व्यवहार ठीक नहीं है, पोस्टकार्ड का भी जवाब नहीं देते हैं। इसप्रकार जो अपनी व्यक्तिगत अरुचि के कारण विनयमर्यादाओं को नहीं निभाता है, वह गलत है। निरपेक्ष गुरु का तात्पर्य यह है कि उन्होंने हमारा व्यक्तिगत उपकार किया है या नहीं किया है - इसकी कोई अपेक्षा नहीं है; किन्तु वे २८ मूलगुणों के धारी हैं, छटवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में हैं। ऐसे निरपेक्ष गुरु यदि हमारे सामने आ जाए तो अभ्युत्थानादि विनय की क्रियाएँ करना ही चाहिए। उन निरपेक्ष गुरुओं के साथ ऐसा नहीं चलेगा कि हम तो देव-शास्त्र-गुरु की पूजन कर लेते हैं या णमोकार मंत्र में नमस्कार कर लेते हैं तो उनको भी नमस्कार हो ही जाता है। यदि वे निरपेक्ष गुरु सच्चे हैं और हमारे सामने आते हैं, उस समय यदि हम अन्य कारणों से अभ्युत्थानादि क्रियाएँ नहीं करते हैं तो यह सही नहीं है। सापेक्ष गुरु वे होते हैं, जिन्होंने हमारा प्रत्यक्ष उपकार किया है, चाहे वे मुनि हो या सामान्य गृहस्थ । यद्यपि चौथे गुणस्थानवाले हमारे 186
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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