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________________ ३७४ प्रवचनसार का सार अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि गृह से घर कैसे बन गया ? समझने की बात यह है कि गृह बोलने में कठिन है तथा 'घर' बोलने में उसकी अपेक्षा सरल है। लोकभाषा हमेशा सुविधामुखी होती है; अतएव 'गृह' की अपेक्षा घर बोलने में सरल होने से 'घर' का प्रचलन हो गया। 'गृह' से 'घर' में परिवर्तन कैसे हुआ ? यह भी समझने योग्य है। गृह में तीन अक्षर हैं - ग, ह, र तथा घर' में भी तीन अक्षर हैं - ग, र, ह। अंग्रेजी भाषा में रोमनलिपि में गृह को GRAH लिखा जाता है तथा घर को GHAR लिखा जाता है दोनों में GRH और A अक्षर हैं। बस इतना ही अन्तर है कि एक में H पहले है तथा एक में बाद में। इनका परस्पर स्थान परिवर्तन हो गया है। लोकभाषा में मुख सुख के लिए स्थान परिवर्तन कर दिया जाता है। जब 'G' और 'H' मिलते हैं तो 'घ' बन जाता है तथा 'घर' के 'घ' में ग और ह मिले हुए हैं। 'घ' वास्तव में मूल अक्षर नहीं है; अपितु संयुक्त अक्षर है। इसप्रकार स्थान परिवर्तन के कारण संस्कृत का गृह हिन्दी, अपभ्रंश और प्राकृत में घर बन गया। ____ गाथा में यह कहा है कि प्रशस्तभूतचर्या अथवा सेवा करने का काम मुख्यरूप से तो गृहस्थों का है और गौणरूप से मुनिराजों का है; क्योंकि मुनिराजों का ६ घड़ी सुबह, ६ घड़ी दोपहर और ६ घड़ी सायं का समय तो सामायिक का है तथा मुनिराज सेवा करने के लिये अपनी सामायिक नहीं छोड़ेंगे। इसलिए मुनिराजों को सेवा के लिए कम समय मिलने के कारण गौणरूप से उनका काम कहा है। इसके बाद इसी में एक प्रकरण यह भी है कि लोग कहते हैं कि सेवा तो सेवा है, किसी की भी करो। अरे भाई ! ऐसा नहीं है। इसी संदर्भ में इसमें एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया है कि जैसे बीज एक होने पर भी जमीन के अंतर से फल में अंतर आता है; वैसे ही जिनकी सेवा की जा रही है, उनमें अंतर होने से सेवा एक सी करने पर भी फल में अंतर आता है। तेईसवाँ प्रवचन ३७५ जिसप्रकार अनार का एक बीज कश्मीर या अफगानिस्तान में बोने पर अनार का दाना इतना बढ़िया पकता है कि मुँह में रखते ही घुल जाता है तथा वही बीज राजस्थान में बोने पर एक तो वृक्ष उगेगा ही नहीं, उगेगा तो फल नहीं लगेंगे। यदि फल लगेंगे भी तो मुँह में रखने के काबिल नहीं होंगे। इसीप्रकार अमेरिका और लंदन का भुट्टा इतना मीठा होता है कि और कुछ अच्छा ही नहीं लगता। भारत के भुट्टे के दानों से चार गुना बड़ा दाना होता है तथा अमेरिका में भुट्टे का तेल ही प्रयुक्त होता है। जैसे भारत में मूंगफली और सरसों का तेल ही प्रयोग करते हैं; वैसे ही अमेरिका में कॉर्न ऑइल अर्थात् भुट्टे का तेल प्रयोग करते हैं। अपने भारत में वैसा भुट्टा नहीं होता, जैसा अमेरिका में होता है। यह जमीन का अंतर है। जिसप्रकार जमीन में अंतर होने से बीज एक होने पर भी फल में अंतर आता है; उसीप्रकार जिनकी सेवा की जा रही है, उनमें अंतर होने से सेवा एक-सी करने पर भी फल में अंतर आता है। तदनन्तर एक प्रकरण यह भी है कि दो मुनिराज एक दूसरे को जानते नहीं हैं तथा यदि वे दोनों अचानक मिलें तो वे क्या करें ? आजकल तो सभी महाराज प्रसिद्ध हो जाते हैं तथा एक-दूसरे को जानते हैं तथा लोग भी दौड़-दौड़ कर बता देते हैं। पहले तो ऐसी कोई योजना होती नहीं थी तथा मुनिराज तो किसी को बताते नहीं, उस समय हजारों मुनिराज थे, इसलिए एक-दूसरे को जानना संभव भी नहीं था। उनका आचरण इतना निर्मल होता था कि उनके द्रव्यलिंग और भावलिंग का भी बाहर की चर्या देखने से पता नहीं चलता था। ऐसी स्थिति में वे मुनिराज क्या करें? - इसी का उत्तर देनेवाली गाथा २६२ इसप्रकार है - अव्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं । अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ।।२६२।। ___184
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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