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________________ ३७० प्रवचनसार का सार होता है; तथापि यदि (१) शुद्धात्मा की ज्ञानदर्शनस्वरूप चर्यावाले शुद्ध जैनों के प्रति, तथा (२) शुद्धात्मा की उपलब्धि की अपेक्षा से ही, वह प्रवृत्ति की जाती हो तो शुभोपयोगी के उसका निषेध नहीं है; परन्तु यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति से अल्प ही लेप होता है; तथापि (१) शुद्धात्मा की ज्ञानदर्शनरूप चर्यावाले शुद्ध जैनों के अतिरिक्त दूसरों के प्रति तथा (२) शुद्धात्मा की उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य किसी भी अपेक्षा से, वह प्रवृत्ति करने का शुभोपयोगी के निषेध है; क्योंकि इसप्रकार से पर को या निज को शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं होती।" भावार्थ में यह लिखा है कि जो शुद्धात्मा के साधक हैं; उनकी शुद्धात्मा की प्रवृत्ति की सुरक्षा में साधनभूत सेवा करना ही वैयावृत्ति है। अरे भाई ! यदि किसी को कुछ देना हो तो शास्त्र देना; जिसे वह पढ़ेगा तथा माथे पर रखेगा तथा जिनबिम्ब दो; जिनके सारी दुनिया दर्शन करेगी। देव-शास्त्र-गुरु आत्मकल्याण में निमित्त होते हैं। पाँच इन्द्रियों के विषयों की सामग्री देने से क्या लाभ है; क्योंकि वह तो अपने लिए हर कोई जुटाता है, यदि हम भी वही सामग्री जुटाकर देंगे तो क्या फायदा है ? इसके बाद, “शुभोपयोगी श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं" यह बतानेवाली २५२वीं गाथा इसप्रकार है रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवजदु आदसत्तीए ।।२५२।। (हरिगीत) श्रम रोग भूखरु प्यास से आक्रान्त हैं जो श्रमणजन। उन्हें लखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो।।२५२।। रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा श्रम से आक्रांत श्रमण को देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्यादि करो। इस गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है - तेईसवाँ प्रवचन ३७१ __ "जब शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त श्रमण को, उससे च्युत करे ऐसा कारण - कोई भी उपसर्ग - आ जाय, तब वह काल, शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्ति का काल है; और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति को प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है।" ___ आचार्य इस संदर्भ में एक-एक बात पर विचार कर रहे हैं कि मुनियों की सेवा या वैयावृत्ति कब और कैसे करना? पहले तो आचार्यदेव ने यह बताया था कि किनकी सेवा करना, कैसे करना तथा अपने संयम का घात करके सेवा नहीं करना तथा धर्मवृद्धि के लिए सेवा करना। अब, इस गाथा में आचार्य सेवा का काल निर्धारण कर रहे हैं कि सेवा कब करना। यहाँ काल का अर्थ सुबह ७ बजे या शाम को ६ बजे - इसप्रकार का समय नहीं है, अपितु यहाँ काल का अर्थ यह है कि जब कोई मुनिराज बीमार हो या तकलीफ में हो; जिससे उनका उपयोग अपनी आत्मा में नहीं लग रहा हो, तब उनकी सेवा करना, जिससे उनका उपयोग स्थिर हो जाय। इसी गाथा का भावार्थ इसप्रकार है - "जब शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त श्रमण के स्वस्थ भाव का नाश करनेवाला रोगादिक आ जाय; तब उस समय शुभोपयोगी साधु को उनकी सेवा की इच्छारूप प्रवृत्ति होती है, और शेष काल में शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त करने के लिये निज अनुष्ठान होता है।" भावार्थ में कथित स्वस्थभाव का तात्पर्य आत्मा में लीन होने का भाव है तथा उस स्वस्थभाव का नाश करनेवाली बीमारी के आ जाने पर शुभोपयोगी साधु उनकी सेवा करते हैं। इसके बाद “शुभोपयोगी श्रमण को लोगों के साथ बातचीत की प्रवृत्ति किस निमित्त से करना योग्य है और किस निमित्त से नहीं।" 182
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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