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________________ ३६६ प्रवचनसार का सार दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ।।२४८।। (हरिगीत) उपदेश दर्शन-ज्ञान-पूजन शिष्यजन का परिग्रहण। और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ।।२४८।। दर्शन-ज्ञान का (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का) उपदेश, शिष्यों का ग्रहण, तथा उनका पोषण और जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश वास्तव में सरागियों की चर्या है। ___ गाथा में कथित शिष्यों के ग्रहण का तात्पर्य है दीक्षा देना, तथा पोषण करने का तात्पर्य रोटी-दाल खिलाना नहीं है; अपितु तत्त्वज्ञान में पुष्ट करना है; क्रियाओं में उनकी वृत्ति नहीं बिगड़े - इसप्रकार सम्हाल करना है। मुनिराजों के शुभोपयोग की सीमा उपदेश देना, दीक्षा देना, मुनियों का पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा के उपदेश तक ही है। ___ इसके बाद आचार्यदेव शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोधवाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए - ऐसा कहते हैं - जदि कुणदिकायखेदं वेजावच्चत्थमुजदोसमणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ।।२५०।। (हरिगीत) जो श्रमण वैयावृत्ति में छहकाय को पीड़ित करें। वह गृही ही है क्योंकि यह तो श्रावकों का धर्म है।।२५०।। यदि श्रमण वैयावृत्ति के लिये उद्यमी वर्तता हुआ छह काय को पीड़ित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि वह छहकाय की विराधना सहित वैयावृत्ति श्रावकों का धर्म है। अब यहाँ आचार्यदेव मुनिराजों के शुभोपयोग की मर्यादा का वर्णन कर रहे हैं कि मुनिराज का शुभोपयोग किसप्रकार का हो सकता है तथा किसप्रकार का नहीं हो सकता? जैसे - कोई मुनिराज बीमार हो गए एवं उन्हें इलाज की जरूरत है। तेईसवाँ प्रवचन ____३६७ अब यदि कोई मुनिराज उनके लिए या अपने गुरु के लिए गृहस्थ से बातचीत करते हैं तो वे निंदित नहीं है; किन्तु अपने लिए करते हैं तो वे निंदित हैं। गृहस्थ से बातचीत इसलिए करनी पड़ेगी; क्योंकि मुनिराज को दवाई तो आहार में ही दी जा सकती है, वह भी २४ घंटे में एक बार बीमारी के हिसाब से दी जाएगी। लेकिन यदि पहले से व्यवस्था नहीं होगी या किसी अच्छे वैद्य को नहीं दिखाया गया तो यह सब सम्भव नहीं होगा। अतएव इस संबंध में यदि गृहस्थ से बातचीत की जाती है तो वह निंदित नहीं है; लेकिन यदि कोई मुनिराज इसी का ही आश्रय लेकर कल यह बना लेना, आज लौकी बना लेना, यह नहीं बनाना - ऐसी चर्चा होने लग जाए तो अनर्थ की बात हो जाएगी। हमें इस बात पर बहुत गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि वे मुनिराज भी मनुष्य हैं तथा ऐसी मनुष्यगत कमजोरियाँ हममें हैं; वैसी ही कमजोरियाँ उनमें भी हैं। वे मात्र मनुष्य ही नहीं हैं; अपितु हमसे महान भी हैं, गुरु भी हैं, व्रती भी हैं। हमें तो यह समझना चाहिए कि सच्चे भावलिंगी हैं। यदि हम ऐसी कड़क निगाह रखेंगे तो वे भावलिंगी भी भूखों मर जाएंगे, मोक्ष नहीं जा पाएंगे। एक ओर जहाँ महाभ्रष्टता है, वही दूसरी ओर लोगों की वाणी और निगाह में इनके प्रति कड़कता आ गई है। मुझे तो कभी-कभी यह डर लगता है कि ऐसे में यदि आचार्य कुन्दकुन्द भी आ जाए, तो मुमुक्षुओं को वे भी पसन्द नहीं आयेंगे। इन सब बातों का विचार कर लोगों को भी एक बार यह विचार करना चाहिए कि मुझे सच्चा मुनिराज बनना है तथा ये सारी परिस्थितियाँ मेरे ऊपर आएगी, तब मेरे परिणाम कैसे होना चाहिए? अरे भाई ? मुनिराज बने बिना तो कोई भी मोक्ष जानेवाला नहीं है। अतएव मुनिराज तो बनना ही होगा तथा सारी वस्तुस्थिति अपने ऊपर घटित करके देखना चाहिए । इन बातों को विचारने से हमारा दृष्टिकोण भी बदलकर संतुलित होगा। 180
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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