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________________ प्रवचनसार का सार समस्या यह है कि इस बात की उपेक्षा कर हम सभी परिग्रह जोड़ रहे हैं। 'केवलज्ञान भी अपना नहीं है' - यह कहनेवाले भी सुबह से लेकर शाम तक बढ़िया खाना-पीना, कमाने में ही लग रहे हैं। इतना सब होने के बाद भी सभी को सम्यग्दर्शन चाहिए, सम्यक्चारित्रवंत भी बनना है, मोक्ष भी जाना है। किसी को छोटा तो बनना ही नहीं है, सभी को चक्रवर्ती बनना है - चाहे वे चारित्र के चक्रवर्ती हो या सम्यग्दर्शनादि के । इसके बाद गाथा २२५ इसप्रकार है - ३५० उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं णिद्दिट्ठ ।। २२५ । । ( हरिगीत ) जन्मते शिशुस नगन तन विनय अर गुरु के वचन । आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन ।। २२५ ।। यथाजातरूप नग्न लिंग भी जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है और गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय भी उपकरण कही गई है। शरीर, गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय - इन्हें उपकरण कहा है अर्थात् ये भी परिग्रह या उपधि है। ये अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग नहीं। सर्वप्रथम तो शरीर को उपकरण कहा। वह शरीर भी जैसा माँ के पेट से पैदा हुआ था, वैसा शरीर । शरीर के ऊपर जो बाल उग आते हैं; उन्हें भी उखाड़ना पड़ेगा; क्योंकि जन्मजात शरीर में बाल नहीं थे । इसप्रकार शरीर को उपकरण कहने के बाद गुरु के वचन और सूत्रों के अध्ययन को भी उपकरण कहा। जो सूत्र गुरु ने अपने मुख से बताए, वे गुरुजी के वचन भी परिग्रह हैं और उन सूत्रों का चिंतन, अध्ययन भी परिग्रह है। यहाँ पर उन्होंने गुरु के वचन और सूत्रों के अध्ययन को उपकरण कहा है न कि शास्त्र को। मुझे एक विकल्प हमेशा आता है कि मुनिराज किसप्रकार पीछी, कमण्डलु और शास्त्र- ये तीन चीजें रख सकते हैं; क्योंकि यदि पीछी-कमण्डलु पकड़ेंगे, तब शास्त्र कैसे पकड़ेंगे ? 172 बाईसवाँ प्रवचन ३५१ दूसरी बात यह भी है कि दूसरों को पकड़ा नहीं सकते हैं। मान लो, यदि दूसरों को पीछी - कमण्डलु पकड़ाते हैं और यदि वे नहीं आते हैं तो फिर मुनिराज कैसे जा सकते हैं ? उनकी जाने की स्वतंत्रता कहाँ रही ? पीछी - कमण्डलु पकड़ने वाले कहे कि हम तो महाराज के पीछे-पीछे आ ही रहे हैं, तो भी महाराजजी को पीछे तो देखना ही पड़ेगा कि वे आ रहे हैं या नहीं ? ये उपकरण तो महाराजजी को २४ घण्टे ही चाहिए; क्योंकि यदि उन्हें कहीं बैठना हो, तो जीव-जन्तुओं को हटाने के लिए पीछी चाहिए। इसप्रकार जब मुनिराज एक हाथ में पीछी लेंगे और एक हाथ में कमण्डलु, तब शास्त्र किसप्रकार लेंगे ? इसलिए गुरु के वचन उपकरण हैं न कि शास्त्र । गुरु की विनय को भी गाथा में उपकरण कहा है अर्थात् गुरु की विनय अपवाद मार्ग है। मन से, वचन से एवं काय से की गई गुरु की विनय शुभोपयोग है; क्योंकि यह परलक्ष्यी भाव है। इसलिए ये सभी उपकरण अपवाद मार्ग हैं, परिग्रह हैं। इस संदर्भ में इसी गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है - "इसमें जो अनिषिद्ध परिग्रह है, वह श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में उपकार करनेवाला होने से उपकरणभूत है, दूसरा नहीं। उसके विशेष भेद इसप्रकार हैं- सहजरूप से अपेक्षित यथाजातरूपपने के कारण बहिरंग लिंगभूत हैं - ऐसे कायपुद्गल; जिनका श्रवण किया जाता है ऐसे तत्कालबोधक, गुरु द्वारा कहे जाने पर आत्मतत्व- द्योतक, उपदेशरूप वचनपुद्गल तथा जिनका अध्ययन किया जाता है - ऐसे नित्यबोधक, अनादिनिधन शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रकाशित करने में समर्थ श्रुतज्ञान के साधनभूत शब्दात्मक सूत्रपुद्गल और शुद्ध आत्मतत्त्व को व्यक्त करनेवाली जो दार्शनिक पर्यायें, उनरूप से परिणमित पुरुष के प्रति विनीतता का अभिप्राय प्रवर्तित करनेवाले चित्रपुद्गल । यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि काय की भाँति वचन और मन भी वस्तुधर्म नहीं है। " -
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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