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________________ बीसवाँ प्रवचन आचार्य कुन्दकुन्द की अमरकृति प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के ज्ञेयज्ञानविभागाधिकार पर चर्चा चल रही है, जिसमें गाथा १८९ की चर्चा आचार्य अमृतचन्द्र की टीका सहित हो चुकी है। आचार्य अमृतचन्द्र के ३०० वर्ष बाद जब आचार्य जयसेन का इस बात पर ध्यान केन्द्रित हुआ; तब उन्होंने स्पष्ट किया है कि ऐसा उपचार से कह दिया है। ‘उपचार से शुद्धनिश्चयनय कह दिया है' का तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय से शुद्धनिश्चयनय कह दिया है, अन्यथा उपचार तो निश्चयनय में लगता ही नहीं है। उपचरित-सद्भूतव्यवहार नय, उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय - ऐसे उपचार तो व्यवहारनय में ही लगते हैं, निश्चयनय में नहीं। 'आत्मा रागादि का कर्ता शुद्धनिश्चयनय से है' इसका विश्लेषण अच्छी तरह से किया जा चुका है। तदनन्तर 'अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है' - ऐसा कथन करनेवाली गाथा १९० इसप्रकार है - ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु। सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ।।१९० ।। (हरिगीत) तन-धनादि में 'मैं हूँयह' अथवा 'ये मेरे हैं सही। ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें।।१९०।। जो देह-धनादिक में 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' ऐसी ममता को नहीं छोड़ता, वह श्रमणता को छोड़कर उन्मार्ग का आश्रय लेता है। इस गाथा में निहित सरल भाव यह है कि जो व्यक्ति धन सम्पत्ति में ममत्व नहीं छोड़ता है, वह श्रमण होकर भी उन्मार्ग में है अर्थात् सच्चे मार्ग में नहीं है। बीसवाँ प्रवचन ३११ यहाँ पर जो बातें ध्यान देने योग्य हैं, उसमें पहली तो यह है कि श्रमण के पास देह तो है; पर धन नहीं है। फिर भी धन के प्रति ममत्व कैसे हो जाता है ? अरे भाई ! यह हो सकता है कि श्रमण को अपने धनादि से ममत्व नहीं हो; किन्तु संस्थादि के नाम पर या अन्य किसी रूप में उन्हें धनादि से ममत्व हो सकता है। इस चीज का नंगा नाच आजकल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। यह भी संभव है कि इसी के थोड़े अंश आचार्य कुन्दकुन्द के समय रहे हों; इसीलिए गाथा में उन्हें धन के प्रति ममत्व छोड़ने का उल्लेख करना पड़ा। इस गाथा के संबंध में दूसरी बात यह भी है कि इस गाथा में देह और धन के संबंध में लिखा; किन्तु राग-द्वेष-मोह के संबंध में नहीं लिखा। अरे भाई ! गाथा में 'ममत्व' शब्द लिखकर ममत्व को भी छुड़ाया है। देह व धन जब अपने है ही नहीं, तब उन्हें छोड़ने और ग्रहण करने का मतलब ही क्या है ? वास्तव में तो उन के प्रति जो मोह और राग है, उस मोह और राग को छोड़ना है। आचार्य यहाँ यह कह रहे हैं कि यदि श्रमण होना है, तो ममत्व छोड़ना पड़ेगा और ममत्व छोड़ने का तात्पर्य ही मोह-राग-द्वेष छोड़ना है। ___ इस संदर्भ में इसी गाथा की टीका भी द्रष्टव्य है - "जो आत्मा शुद्धद्रव्य के निरूपणरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्य के निरूपणरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है और ऐसा वर्तता हुआ 'मैं यह हैं और यह मेरा है' इसप्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता; वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म परिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है। इससे निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है।' यहाँ आत्मीयता का तात्पर्य अपनेपन की भावना है। 'यह मैं हूँ इसप्रकार की अपनत्वबुद्धि का नाम ही आत्मीयता है। अपनेपन की ___152
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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