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________________ ३०४ प्रवचनसार का सार जीव सभी कालों में पुद्गलों के मध्य में रहता हुआ भी पौद्गलिक कर्मों को वास्तव में न तो ग्रहण करता है, न छोड़ता है और न करता है। जीव हमेशा पुद्गलों के मध्य में रहता है। जब जीव का देह के साथ संयोग रहता है; उस समय भी जीव पुद्गलों के बीच रहता है तथा जब जीव सिद्ध हो जाता है; उस समय भी जीव पुद्गलों के बीच में ही रहता है; क्योंकि लोकाकाश में पुद्गल ठसाठस भरे हैं; चाहे वे जीव से संबंधित हो या असंबंधित । जीव पुद्गलों के बीच में रहता हुआ भी पुद्गल कर्मों को न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है। पुद्गल का परिणमन पुद्गल में होता है और जीव का परिणमन जीव में होता है जीव के परिणमन में पुद्गल कुछ भी नहीं करता है। यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता है तो फिर आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता और छोड़ा जाता है ? इसका निरूपण करनेवाली गाथा १८६ इसप्रकार है स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स। आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ।।१८६ ।। (हरिगीत) भवदशा में रागादि को करता हआ यह आतमा । रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता ।।१८६।। वह अभी (संसारावस्था में) द्रव्य से (आत्मद्रव्य में) उत्पन्न होनेवाले (अशुद्ध) स्वपरिणाम का कर्ता होता हुआ कर्मरज से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा भी जाता है। इस गाथा में यह कहा है कि आत्मा कर्म के निमित्त से रागरूप नहीं परिणमता तथा आत्मा अपने आत्मद्रव्य में उत्पन्न होनेवाले स्वपरिणामों का कर्ता है, रागादिक का कर्ता है; लेकिन कर्मों का कर्त्ता नहीं है। इसप्रकार आत्मा में उत्पन्न होनेवाले राग परिणामों के कारण आत्मा स्वयं कर्म से बंधता है तथा आत्मा में होनेवाले वीतराग परिणामों उन्नीसवाँ प्रवचन से स्वयं कर्मों से छूटता है। इसप्रकार मूलतः राग परिणाम ही बंध के कारण हैं। इसीप्रकार का भाव बनारसीदासजी ने नाटक समयसार के बंधाधिकार के इस छंद में प्रकट किया है - कर्मजाल-वर्गना सौं जग मैं न बंधै जीव, बंधैन कदापि मन-वच-काय-जोग सौं। चेतन अचेतन की हिंसा सौं न बंधै जीव, बंधैन अलख पंच-विषै-विष-रोग सौं।। कर्म सौ अबंध सिद्ध जोग सौं अबंध जिन. हिंसा सौं अबंध साधु ग्याता विषै-भोग सौं। इत्यादिक वस्तु के मिलाप सौं न बंधै जीव, बंध एक रागादि असुद्ध-उपयोग सौं ।। इसी संबंध में गाथा १८६ का भावार्थ भी द्रष्टव्य है - “अभी संसारावस्था में जीव पौद्गलिक कर्म परिणाम को निमित्तमात्र करके अपने अशुद्ध परिणाम का ही कर्त्ता होता है, परद्रव्य का कर्ता नहीं होता। ___इसीप्रकार जीव अपने अशुद्ध परिणाम का कर्ता होने पर जीव के उसी अशुद्ध परिणाम को निमित्तमात्र करके कर्मरूप परिणमित होती हुई पुद्गलरज विशेष अवगाहरूप से जीव को ग्रहण करती है और कभी स्थिति के अनुसार रहकर अथवा जीव के शुद्ध परिणाम को निमित्तमात्र करके छोड़ती है।" तदनन्तर 'पुद्गल कर्मों की विचित्रता (ज्ञानावरण, दर्शनावरणादिरूप अनेक प्रकारता) को कौन करता है ?' इसका निरूपण करनेवाली गाथा १८७ की टीका इसप्रकार है - "जैसे नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार आत्मा के 149
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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