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________________ प्रवचनसारका सार दूसरा प्रवचन चाहिए, यदि नहीं जानेगा तो शुद्धोपयोगी नहीं कहलाएगा - यह अर्थ उचित नहीं है। जानते रहना चाहिए - ऐसी शर्त यहाँ कहाँ है ? शुद्धोपयोगी जानता ही है, बात तो यह है। ___ 'यहाँ जानते रहना चाहिए' - ऐसा कहनेवाले मात्र उपयोग के जानने को ही जानना मानते हैं; लब्धि का जो जानना है, वे उसे नहीं मानते हैं। __ ऐसी चर्चा अनेक मुमुक्षु भी करते हैं। कहते हैं कि शुद्धोपयोग के काल में पर को जानना जरूरी नहीं है। वे ऐसा कहकर यही व्यक्त करते हैं कि वे मात्र उपयोग को ही जानना मानते हैं। आचार्यदेव ने शुद्धोपयोगियों को संयम व तप से युक्त विगतरागी कहा है। यह भूमिकानुसार लेना । सातवें गुणस्थान में सातवें के योग्य राग से रहित हैं, आठवें गुणस्थान में आठवें के योग्य राग से रहित हैं, नौवे गुणस्थान में नौवे के योग्य राग से रहित हैं। जिस भी गुणस्थान में वे शुद्धोपयोगी हैं; उस गुणस्थान में जो राग होनेयोग्य नहीं है, वे उससे रहित हैं। द्रव्यदृष्टि से तो राग से भिन्न होने के कारण निगोदिया भी राग से रहित हैं; परन्तु यहाँ ऐसा नहीं है, यहाँ पर्याय की मुख्यता से कथन है। इसीप्रकार संयम और तप को भी भूमिकानुसार घटित कर लेना चाहिए। सुख-दुःख में समभावी विशेषण में आत्मिक सुख की बात नहीं है। सुख-दुःख अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता में जिसका साम्यभाव है - ऐसे जीवों को शुद्धोपयोगी कहते हैं। ऐसे शुद्धोपयोगी जीव ज्ञेयों के पार को पा लेते हैं - यह बात १५वीं गाथा में कही है; जो इसप्रकार है - उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ।।१५।। (हरिगीत) शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज । स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ।।१५।। शुद्धोपयोगी आत्मा स्वयं ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोह कर्मरज से रहित होकर ज्ञेयभूत पदार्थों के पार को प्राप्त होते हैं। १४वीं एवं १५वीं गाथा से आचार्यदेव अनंतसुख एवं ज्ञेयों के पार को प्राप्त करना ये दो महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करते हैं; जो इस बात के प्रतीक हैं कि भविष्य में आचार्य ज्ञानाधिकार एवं सुखाधिकार लिखेंगे; जिसमें वे अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुख का स्वरूप समझायेंगे। वे अतीन्द्रिय सुख एवं अतीन्द्रिय ज्ञान शुद्धोपयोग के फल हैं एवं वह शुद्धोपयोग ही साक्षात्चारित्र है, वही धर्म है। वे यहाँ अतीन्द्रिय आनंद अतीन्द्रिय ज्ञान को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि ज्ञान एवं सुख दो-दो प्रकार के हैं - (१) इन्द्रिय सुख (२) अतीन्द्रिय सुख एवं १. इन्द्रिय ज्ञान २. अतीन्द्रिय ज्ञान । ____ अतीन्द्रिय ज्ञानवालों को अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है एवं इन्द्रिय ज्ञानवालों को इन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। अतः अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है एवं इन्द्रियज्ञान हेय है। अब आचार्य १६वीं गाथा लिखते हैं, जो बहुत प्रसिद्ध है एवं जिसे स्वयंभू की गाथा कहा जाता है। तह सोलद्धसहावो, सव्वण्हसव्वलोगपदिमहिदो। भूदो सयमेवादा, हवदि सयंभु त्ति णिट्टिो ।।१६।। (हरिगीत) त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन । स्वयं ही हो गये तातें स्वयम्भू सब जन कहें ।।१६।। इसप्रकार अपने स्वभाव को प्राप्त कर वह आत्मा स्वयं ही सर्वज्ञ तथा त्रैलोक्यपूज्य हुआ होने से स्वयंभू है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। लोकव्यवहार में नेताओं के लिए भी यह विशेषण लगाया जाता है। स्वयंभू नेता का अर्थ यह है कि वह जन्मजात नेता है, उसे किसी ने नेता 12
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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