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________________ २९३ २९२ प्रवचनसार का सार जिसप्रकार किसी डॉक्टर ने किसी आदमी के एक्सरे को देखकर जाँच लिख दी और पूरी रिपोर्ट भी तैयार कर दी। उस डॉक्टर ने आदमी की शक्ल भी नहीं देखी, फिर भी सब कुछ देख लिया। उस बच्चे ने भी वास्तव में उसी बैल को देखा था, जो उसकी ज्ञान पर्याय में बना था; लेकिन व्यवहार से यह कहा जाता है कि उसने बैल को जाना। ___ उसीप्रकार आत्मा में जो राग पैदा हुआ, वह ज्ञान ने अपनी पर्याय से ही जाना । इसमें पर का कुछ भी नहीं है। जैसे - जो ज्ञान में जो बैल का आकार बना था, उसमें बैल निमित्त था; उसीप्रकार आत्मा में जो राग पैदा हुआ उसमें परद्रव्य निमित्त है। जिसप्रकार अशुद्धनिश्चयनय से उस राग भाव का कर्त्ता भगवान आत्मा को कहा जाता है; उसीप्रकार ज्ञान में जो ज्ञेय झलकते हैं अर्थात् ज्ञान में जो आकार बनते हैं, वे आकार जिस निमित्त से बनते हैं, उनको जानने का व्यवहार भी प्रचलित है। इसी चर्चा को भलीभाँति स्पष्ट करनेवाला इसी गाथा का भावार्थ इसप्रकार है आत्मा अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ कैसे बँधता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यदेव ने कहा है कि - आत्मा के अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिक पदार्थों को कैसे जानता है ? जैसे वह मूर्तिक पदार्थों को जानता है; उसीप्रकार मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ बँधता है। वास्तव में अरूपी आत्मा का रूपी पदार्थों के साथ कोई संबंध न होने पर भी अरूपी का रूपी के साथ संबंध होने का व्यवहार भी विरोध को प्राप्त नहीं होता । जहाँ ऐसा कहा जाता है कि आत्मा मूर्तिक पदार्थ को जानता है; वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक पदार्थ के साथ कोई संबंध नहीं है; उसका तो मात्र उस मूर्तिक पदार्थ के आकार रूप होने वाले ज्ञान के साथ ही संबंध है और उस पदार्थाकार ज्ञान के अठारहवाँ प्रवचन साथ के संबंध के कारण ही अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थ को जानता है - ऐसा अमूर्तिक-मूर्तिक का संबंध रूप व्यवहार सिद्ध होता है। इसीप्रकार जहाँ ऐसा कहा जाता है कि अमुक आत्मा का मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ बंध है; वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ कोई संबंध नहीं है; आत्मा का तो कर्मपुद्गल जिसमें निमित्त हैं - ऐसे रागद्वेषादिभावों के साथ ही सम्बन्ध (बंध) है और उन कर्मनिमित्तक रागद्वेषादि भावों के साथ सम्बन्ध होने से ही इस आत्मा का मूर्तिक कर्मपुद्गलों के साथ बंध है। यद्यपि मनुष्य को स्त्री-पुत्र-धनादि के साथ वास्तव में कोई संबंध नहीं है; वे उस मनुष्य से सर्वथा भिन्न हैं; तथापि स्त्री-पुत्र-धनादि के प्रति राग करनेवाले मनुष्य को राग का बन्धन होने से और उस राग में स्त्री-पुत्र-धनादि के निमित्त होने से व्यवहार से ऐसा अवश्य कहा जाता है कि इस मनुष्य को स्त्री-पुत्र-धनादि का बन्धन है; इसीप्रकार, यद्यपि आत्मा का कर्मपुद्गलों के साथ वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं है, वे आत्मा से सर्वथा भिन्न है; तथापि रागद्वेषादि भाव करनेवाले आत्मा को राग-द्वेषादि भावों का बन्धन होने से और उन भावों में कर्मपुद्गल निमित्त होने से व्यवहार से ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि इस आत्मा को कर्मपुद्गलों का बन्धन है।" जिस व्यवहार से आत्मा पर को जानता है; उसी व्यवहार से आत्मा का शरीर एवं कर्म से संबंध है। ___अब इसके बाद आचार्य यह स्पष्ट करेंगे कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषादि भी पर हैं; किन्तु इनका आत्मा के साथ बंध कहा जाता है। पुद्गल से तो आत्मा बंधा ही नहीं है। बंधने के लिए दो पदार्थ होने चाहिए; उनमें प्रथम तो जीव है एवं दूसरे शरीर/कर्मादि न होकर मोह-राग-द्वेषादि भाव हैं। 143
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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