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________________ प्रवचनसार का सार २६६ अरे भाई। आलू में अनंत जीव होते हैं - यह जिनेन्द्र भगवान का वचन जानकर आलू नहीं खाना भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति है। आलू में अनंत जीव होते हैं - यह किसने देखा ? - ऐसा कहना जिनेन्द्र भगवान की सबसे बड़ी अभक्ति है; क्योंकि इसमें उनके कथन के प्रति अश्रद्धा का भाव है। इसप्रकार, जो जिनेन्द्रों को जानता है, सिद्धों तथा अनागारों की (आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं की) श्रद्धा करता है, और जीवों पर दयाभाव रखता है, उसका नाम शुभोपयोग है। इसके बाद आचार्यदेव अशुभोपयोग का स्वरूप प्ररूपित करते हैं - विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो।।१५८।। (हरिगीत) अशुभ है उपयोग वह जो रहे नित उन्मार्ग में। श्रवण-चिंतन-संगति विपरीत विषय-कषाय में ।।१५८।। जिसका उपयोग विषय-कषाय में अवगाढ (मग्न) है; कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है; उग्र है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है; उसका वह उपयोग अशुभोपयोग है। इसप्रकार शुभ और अशुभोपयोग के कारण देह का संयोग होता है - यह बताने के लिए आचार्यदेव ने शुभोपयोग एवं अशुभोपयोग का स्वरूप इस अधिकार में लिखा है। यह अधिकार न तो शुभभावाधिकार है और न ही शुभोपयोगाधिकार; क्योंकि ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में ही शुभभावाधिकार निकल चुका है और शुभोपयोगाधिकार बाद में आएगा। यह अधिकार तो ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार है। यहाँ यह कहा गया है कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग के कारण देह और आत्मा का संयोग हुआ है। इसी सन्दर्भ में परद्रव्य के संयोग के सत्रहवाँ प्रवचन ___२६७ कारणरूप शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप अशुद्धोपयोग के विनाश का स्वरूप बतानेवाली गाथा १५९ की टीका भी द्रष्टव्य है; जो इसप्रकार है "जो यह, (१५६वीं गाथा में) परद्रव्य के संयोग के कारणरूप में कहा गया अशुद्धोपयोग है, वह वास्तव में मन्द-तीव्र उदय दशा में रहने वाले परद्रव्यानुसार परिणति के आधीन होने से ही प्रवर्तित होता है; किन्तु अन्य कारण से नहीं। इसलिए यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्थ होऊँ और इसप्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रव्यानुसार परिणति के आधीन न होने से शुभ अथवा अशुभ ऐसा जो अशुद्धोपयोग उससे मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से जिसको शुद्धोपयोग सिद्ध हुआ है, ऐसा होता हुआ, उपयोगात्मा द्वारा (उपयोगरूप निजस्वरूप से) आत्मा में ही सदा निश्चल रूप से उपयक्त रहता है। यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है।" टीका में उल्लिखित परद्रव्य में मध्यस्थ होऊँ का तात्पर्य यह है कि मैं परद्रव्यों को विनष्ट करने का, कर्मों को नाश करने का भी भाव नहीं रखू । टीका में अन्त में जो यह कहा कि यह परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है - यह उन्होंने शुद्धोपयोग का लक्षण ही कहा है। परद्रव्य मैं नहीं हूँ एवं मैं तो भगवान आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी हूँ - ऐसा जो अभ्यास है; वह शुद्धोपयोग है और यह शुद्धोपयोग ही परद्रव्यों से छूटने का उपाय है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग तो संसार में उलझानेवाले हैं। इसप्रकार यहाँ यह सिद्ध कर दिया कि देह के संयोग का कारण शुभोपयोग व अशुभोपयोग है। इसके बाद आचार्यदेव शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थपना प्रगट करते हैं णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता व कत्तीणं ।।१६०।। 130
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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