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________________ २४८ प्रवचनसार का सार इसमें रस नहीं आता । यदि आप यह सूची मुझसे बनवायेंगे तो उस सूची में सबसे पहला नंबर आत्मोद्धार का ही होगा। यदि आप लोग ही सूची बनाते हैं तो भी कोई परेशानी नहीं है। यदि आपकी बनाई सूची में आत्मोद्धार का नाम अन्त में भी आ जाय तो भी मैं आपके काम में शामिल हो जाऊँगा; लेकिन यदि उसमें आत्मोद्धार का नाम ही नहीं होगा तो मेरा जुड़ना संभव नहीं है। असद्भूतव्यवहारनय से जिन्हें अपना कहा जाता है - ऐसे स्त्रीपुत्रादि और देह को ही संभालने में लगे हैं हम । हमने इनको अपना मान रखा है। यही सबसे बड़ी समस्या है और इसी समस्या के समाधान के लिए यह ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार लिखा गया है। जो लोग इस ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार की स्थूल कहकर उपेक्षा करना चाहते हैं और दूसरी बातों को सूक्ष्म कहकर उसमें उलझ रहे हैं; उन लोगों से मैं कहना चाहता हूँ कि वे ऐसा कहकर आचार्य कुन्दकुन्द को और उनके टीकाकार अमृतचन्द्र को स्थूलबुद्धि कह रहे हैं। ___उन आचार्य कुन्दकुन्द को स्थूलबुद्धि कह रहे हैं, जिन्होंने प्रवचनसार में पजयमूढ़ा हि परसमया की चर्चा में मनुष्यादिरूप असमानजातीयद्रव्यपर्याय से ही भिन्नता की बात की है और उसी के द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, अवान्तरसत्ता और महासत्ता आदि विषयों की चर्चा की है, जो कि अत्यन्त सूक्ष्म है। ध्यान रहे आचार्य कुन्दकुन्द ऐसी सूक्ष्म चर्चा के बाद भी ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार में फिर देहादि से भिन्नता की ही बात करते हैं। ___मात्र दशप्राण का नाम ही व्यवहारजीवत्व नहीं है, उसमें चेतन का अंश भी शामिल है। व्यवहारजीव उसे कहते हैं, जो दश प्राणों से जीता था, जीता है और जीवेगा। यह कथन करनेवाली प्रवचनसार की गाथाएँ इसप्रकार हैं - सोलहवाँ प्रवचन २४९ इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणोय। आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते ।।१४६ ।। पाणेहिंचदुहिंजीवदिजीविस्सदिजो हि जीविदोपुव्वं । सो जीवो पाणा पुण पोग्गणदव्वेहिं णिव्वत्ता ।।१४७।। (हरिगीत) इन्द्रिय बल अर आयु श्वासोच्छ्वास ये ही जीव के। हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमे ।।१४६।। जीव जीवे जियेगा एवं अभीतक जिया है। इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ।।१४७।। इन्द्रियप्राण, बलप्राण, आयुप्राण और श्वासोच्छवासप्राण - ये (चार) जीवों के प्राण हैं। जो चार प्राणों से जीता है, जियेगा और पहले जीता था; वह जीव है। फिर भी प्राण तो पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न (रचित) हैं। शरीरादि नोकर्म (संयोग) और मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म (संयोगी भाव) के रूप में द्रव्यकर्म दो प्रकार से फलते हैं। स्त्री-पुत्रादि संयोगों में अघातिया कर्मों का उदय निमित्त होता है और मोह-राग-द्वेषरूप संयोगी भावों में घातिया कर्मों का उदय निमित्त होता है। इसीलिए तो ऐसा होता है कि घातिकर्मों के नष्ट हो जाने पर मोहराग-द्वेषरूप संयोगी भाव तो नष्ट हो जाते हैं; लेकिन संयोग नष्ट नहीं होते; विद्यमान रहते हैं। घातिया कर्मों का नाश करनेवाले तीर्थंकर अरहंतों के समवशरण आदि बाह्यविभूति विद्यमान रहती है, उनकी देह भी रहती है, यशस्कीर्ति रहती है; क्योंकि इन सबकी उपस्थिति होने में अर्थात् संयोगों के रहने में अघातियाकर्म ही निमित्त हैं और वे उनके विद्यमान हैं। ___इसप्रकार यह तो निश्चित हुआ ही कि कर्म संयोग और संयोगी भावों के रूप में दो प्रकार से फलित होते हैं, साथ में ये दस प्राण भी तो संयोगरूप होने से कर्मों का ही फल हैं। दस प्राण कर्म का फल होने के 121
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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