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________________ सोलहवाँ प्रवचन अब ज्ञानतत्त्व आत्मा और ज्ञेयतत्त्व सभी पदार्थ, जिसमें अपना आत्मा भी शामिल है; उनमें स्व-पर के विभागपूर्वक भेदविज्ञान करने की चर्चा करनी है। ___इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में अभी तक समान्यज्ञेय और विशेषज्ञेय की चर्चा हुई। इसके बाद स्व और पर में भेदविज्ञान की मुख्यता से अध्यात्म की चर्चा है। यहाँ आलोचयति अर्थात् अलोचना करते हैं' इस पंक्ति में प्रयुक्त आलोचना शब्द का तात्पर्य बुराई नहीं है; अपितु आलोचना का अर्थ यह है कि उस विषय के संबंध में गहराई से मंथन करते हैं। यदि कोई यहाँ आलोचना शब्द को बुराई के अर्थ में भी ले तो भी कोई बात नहीं है; क्योंकि आचार्य आलोचना करने के बाद यह कहेंगे कि व्यवहाजीव तो मात्र कहने का जीव है, वास्तव में जीव नहीं है। चैतन्यस्वभावी निश्चयजीव ही, वास्तव में जीव है। __अब, यहाँ विशेष समझने की बात यह है कि आचार्यदेव ने जब ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार शुरू किया था तो उसके प्रारम्भ में पर्यायमूढ़ ही परसमय है - ऐसा कहा था। उसके बाद की गाथाओं और टीका के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वहाँ पर पर्याय के नाम पर असमानजातीयद्रव्यपर्याय की ही चर्चा है। इस बात की विस्तृत चर्चा पहले हो चुकी है। ___इसके बाद यहाँ पुनः आचार्यदेव मनुष्य, देव, नारकी, आदि को व्यवहारजीव कहकर उसी असमानजातीयद्रव्यपर्याय की मुख्यता से बात कर रहे हैं; क्योंकि मनुष्यजीव में जीव और अनंत पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड शामिल है। सोलहवाँ प्रवचन इसप्रकार इस सम्पूर्ण प्रकरण में देहदेवल में विराजमान देह से भिन्न भगवान आत्मा की ही चर्चा है। इस प्रकरण की पहली गाथा की टीका में कहते हैं कि - इस समस्त लोक में स्व और पर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा से सम्पन्न, अचिन्त्य महिमा का धारक जीव ही जानने का काम करता है; अन्य कोई द्रव्य जानने का काम नहीं करता । इसप्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य ज्ञेय तथा ज्ञान है - इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है। ध्यान रहे प्रमेयत्वगुण से सम्पन्न अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को परज्ञेयों से ही भिन्न जानना है, स्वज्ञेयरूप निजात्मा से नहीं। जो तीन काल में कम से कम चार प्राणों से जीवे, वह व्यवहारजीव है। इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास - ये चार प्राण हैं। इन्द्रियों में पाँचों इन्द्रियाँ और बल में तीन बल शामिल होने से चार प्राणों से जीता है, सो जीव से तात्पर्य यही है कि जो दस प्राणों से जीता है, वह जीव है। ये दस प्राण देह के ही अंग हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन, वचन और काय - ये तीन बल तथा श्वासोच्छवास - ये सब देह के ही अंग हैं। देह और आत्मा के सुनिश्चित काल के संयोग का नाम आयु होने से आयु भी देह में शामिल है। इसप्रकार जो देह और आत्मा की मिली हुई असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उसका नाम ही व्यवहारजीव है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब दशप्राणों से जीने का नाम व्यवहारजीव है तो फिर गाथा में ऐसा क्यों कहा कि चार प्राणों से जीवे सो जीव है। समाधान यह है कि सभी संसारी जीवों के तो दश प्राण नहीं होते; किन्तु चार प्राणों से रहित तो कोई भी संसारी जीव नहीं है; क्योंकि 119
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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