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________________ प्रवचनसार का सार ज्ञानभाव ज्ञानी करे, अज्ञानी अज्ञान । द्रव्यकर्म पुद्गल करे, यह निश्चय परवान ।। यह निश्चयनय का कथन है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ज्ञानभावों का कर्त्ता ज्ञानी आत्मा है और मोह राग-द्वेषरूप अज्ञानभावों का कर्त्ता अज्ञानी आत्मा है। २२० "अब, यहाँ ऐसा प्रश्न होता है कि 'यदि जीव भावकर्म का ही कर्त्ता है तो फिर द्रव्यकर्म का कर्त्ता कौन है ?' इसका उत्तर इसप्रकार है :- प्रथम तो पुद्गल का परिणाम वास्तव में स्वयं पुद्गल ही है; क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्ता होने से परिणाम से अनन्य है और जो उसका (पुद्गल का ) तथाविध परिणाम है, वह पुद्गलमयी ही क्रिया है; क्योंकि सर्वद्रव्यों कि परिणामस्वरूप क्रिया निजमय होती है ऐसा स्वीकार किया गया है और फिर जो (पुद्गलमयी) क्रिया है, वह पुद्गल के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है। इसलिए परमार्थत: पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्म काही कर्ता है; किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का नहीं। इससे ऐसा समझना चाहिये कि आत्मा आत्मस्वरूप परिणमित होता है, पुद्गलस्वरूप परिणमित नहीं होता।” द्रव्यकर्म के उदय से भावकर्म हुआ इसप्रकार कहकर यह अज्ञानी स्वयं आजाद रहना चाहता है। यह मानता है कि मेरी कोई गलती नहीं है। कहता है कि समयसार में भी कहा है कि 'कर्म ही सुलावे, कर्म ही जगावे; परघात नामक कर्म से हिंसा हो गई, वेदकर्म के उदय से व्यभिचार हो गया। ऐसा होने पर तो महा अनर्थ हो जायेगा ? यह तो सांख्यों जैसा अकर्तापन हो गया। चेतना तीन प्रकार की होती है- ज्ञानचेतना, कर्मचेतना व कर्मफल चेतना । स्वयं का जो ज्ञानस्वभाव है, उसके प्रति आत्मा का चेतना, उसके कर्तृत्व के प्रति आत्मा का चेतना यही ज्ञानचेतना है। 107 चौदहवाँ प्रवचन २२१ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना को शास्त्रों में अज्ञानचेतना भी कहा जाता है। इसप्रकार मूलतः चेतना दो प्रकार की है - ज्ञानचेतना एवं अज्ञान चेतना । इसमें अज्ञानचेतना के दो भेद हैं- कर्मचेतना, कर्मफलचेतना । 'मैं करूँ' 'मैं करूँ' - इसप्रकार पर में करने का जो विकल्प है, करने के प्रति जो सतर्कता है, चेतनता है; यही कर्मचेतना है एवं उसके फल को भोगने के प्रति जो सतर्कता है, वह कर्मफलचेतना है। एकेन्द्रियादि में कर्मफलचेतना की मुख्यता रहती है। वृक्ष के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है; ठंडी लगी, गर्मी लगी, पानी मिला, नहीं मिला इसप्रकार वह सुख-दुःख को भोगा ही करता है अर्थात् उसे करने की अपेक्षा भोगने का भाव ही अधिक रहता है - यही कर्मफलचेतना है । कर्मचेतना एवं कर्मफलचेतना दोनों ही ठीक नहीं है। कर्मचेतना की प्रशंसा की जाती है। कहा जाता है कि यह व्यक्ति कितना कर्त्तव्यनिष्ठ है; जबकि भोगों में मस्त कर्मफलचेतनावाले को कोई अच्छा नहीं मानता है । जो आलसी प्रवृत्ति का है एवं जो भी अनुकूलता प्रतिकूलता का वेदन हुआ, उसे जो मात्र भोग लेता है; वह कर्मफलचेतना की मुख्यतावाला व्यक्ति है । किन्हीं अज्ञानियों में कर्मचेतना की मुख्यता पाई जाती है तो किन्हीं अज्ञानियों में कर्मफलचेतना की मुख्यता रहती है। आप ऐसी बहुत-सी माता-बहनों को देखेंगे कि जिन्हें खाना बनाने में जितना रस आता है, उतना खाना खाने में नहीं । बढ़िया पकवान बनाकर वे पुत्रादिक को खिलायेगी और फिर अंत में जितना बचा होगा, वह स्वयं खायेगी। उन्हें खाने के प्रति उतनी सतर्कता नहीं है, जितनी सतर्कता खिलाने के प्रति है। वे कर्मचेतना की प्रधानतावाली हैं। कुछ लोग खाना बनाने में महाआलसी होते हैं। वे मात्र प्रशंसा करते हैं कि 'यह बहुत बढ़िया बना' 'आज जैसा बना; वैसा तो मैंने कभी नहीं खाया'; परंतु उन्हें करने के प्रति कोई सतर्कता नहीं होती, वे मात्र फल में ही चेतते हैं। ऐसे भोगने की प्रधानतावाले जीव कर्मफल चेतनावाले हैं।
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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