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________________ २०० २०१ प्रवचनसार का सार पर्यायों का कर्ता, साधन और आधार जीव भी पर्यायापेक्षा से अन्यपने को प्राप्त होता है। इसप्रकार जीव की भाँति प्रत्येक द्रव्य के पर्यायापेक्षा से अन्यपना है। इसप्रकार द्रव्य को अन्यपना होने से द्रव्य के असत्-उत्पाद है - ऐसा निश्चित होता है।" यहाँ स्वात्मोपलब्धि को ही सिद्ध कहा गया है। चतुर्थगुणस्थानवर्ती को भी सिद्ध कहा जाता है अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि सिद्धपर्याय में स्वात्मोपलब्धि होती है। यहाँ अमृतचन्द्राचार्यदेव ने उदाहरण के रूप में भी भविष्य की पर्याय में देवत्व या सिद्धत्व को देखा है। __व्यवहार में ऐसा कहते हैं कि - "मानलो! मैं मरकर देवगति में गया।" तब कोई कहे कि - "भाई ऐसा क्यों! नरक गये तो।” तब कहते हैं कि - "अरे भाई! कम से कम विकल्प में तो यह रहने दो कि देव पर्याय में गया। हम नरक की बात क्यों सोचें? अपने पूर्वजों ने भी अपने व्यवहार में इसी भाषा को अपनाया था। तब ऐसा व्यवहार होता था कि देवलोक हो गया, स्वर्गवास हो गया। ऐसा कोई नहीं लिखता था कि नरकवास हो गया । चाहे वह नरक में ही गया हो; परन्तु सभी इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका अर्थ यह है कि हमारे पूर्वजों ने नरक जाने की कल्पना ही नहीं की है। ___यदि ऐसे तत्त्वज्ञान के अभ्यासी लोग स्वर्ग में नहीं जायेंगे तो क्या पापी लोग जायेंगे? मैथिलीशरण गुप्त ने इसके संदर्भ में बहुत उत्कृष्ट लिखा है - मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ। किन्तु पतित को पशु कहना मैं कभी नहीं सह सकता हूँ।। संस्कृत कवि भर्तृहरी ने तो यहाँ तक लिखा है कि - मनुष्य घास बारहवाँ प्रवचन नहीं खाता है - यह पशुओं का भाग्य है; क्योंकि जो चीज यह खाता है, वह पशुओं को नहीं मिलती। ये अनाज खाता है तो पशुओं को अनाज नहीं मिलता है। भर्तृहरि का वह छन्द इसप्रकार है - साहित्य संगीत कलाविहीन: साक्षात्पशुपुच्छविषाणहीनः । तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।। जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन है, वह व्यक्ति पूँछ और सींगों से रहित साक्षात् पशु ही है। वह घास नहीं खाता है - यह पशुओं का महाभाग्य है। पर्याय से द्रव्य अन्य है। जो जिससे उत्पन्न हुई, वह उससे अन्य है। इसलिए वह असत् का उत्पाद हुआ है। पहले नहीं थी, अब पैदा हुई है। जिसकी चर्चा आज बहुत चलती है, वह ११४वीं गाथा मूलतः इसप्रकार है दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पजयट्ठिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ।।११४।। (हरिगीत) द्रव्य से है अनन्य जिय पर्याय से अन-अन्य है। पर्याय तन्मय द्रव्य से तत्समय अतः अनन्य है ।।११४।। द्रव्यार्थिकनय से सब द्रव्य हैं और पर्यायार्थिकनय से वह अन्यअन्य है; क्योंकि उस समय तन्मय होने से (द्रव्य पर्यायों से) अनन्य है। आचार्य यहाँ यह बताना चाहते हैं कि द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य पर्यायों से अनन्य है और पर्यायार्थिकनय से द्रव्य पर्यायों से अन्य है। इस विषय को अमृतचन्द्राचार्य ने टीका में विशेष स्पष्ट किया है - "वास्तव में सभी वस्तुयें सामान्य-विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखनेवालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जाननेवाली दो आँखें हैं - (१) द्रव्यार्थिक (२) पर्यायार्थिक । इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई 97
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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