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________________ १८० प्रवचनसार अनुशीलन दर्वनि में भेद दोय भाषी भगवंत है । मिलि विछुरन हलचलन क्रिया है औ, सुभाव परनति गहै सोई भाववंत है ।। जीव पुद्गलमाहिं दोनों पद पाइयत, धर्माधर्म काल नभ भाव ही गहत है। धन्य धन्य केवली के ज्ञान को प्रकाश वृन्द, एकै बार सर्व सदा जामें झलकंत है ।।७।। द्रव्यों के क्रियावान और भाववान ये दो भेद भी भगवान ने बताये हैं। मिलना-बिछुड़ना और हलन चलने करने का नाम क्रिया है और स्वभावपरिणति ही भाव है। जीव और पुद्गलों में क्रिया और भाव - दोनों पाये जाते हैं; किन्तु धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य में अकेला भाव ही पाया जाता है । वृन्दावन कवि कहते हैं कि केवली भगवान के ज्ञान के प्रकाश को धन्य-धन्य है कि जिसमें सभी पदार्थ, सदा एकसाथ झलकते हैं। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं( अडिल्ल ) पुग्गल दरव सु जीव सु गुरु ये दो कहैं। इनकी परनति रूप क्रिया सो लोक है ।। उपजै अरु थिर रूप 'णसै इहि' घाट हैं। विछुरन और मिलाप सौं सो बहु ठाट हैं ।। ६४ ।। श्रीगुरु ने कहा है कि जीव और पुद्गल - ये दो द्रव्य क्रियावती शक्तिवाले हैं; इनमें क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप क्रिया होती है, जहाँ तक ये रहते हैं, वहाँ तक लोक है, इसी घाट पर (क्षेत्र में) ये उत्पन्न होते हैं, स्थिर रहते हैं और नष्ट होते हैं। जीव और पुद्गल के मिलने और बिछुड़ने से इस लोक में अनेक विचित्रतायें हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - गाथा - १२९ १८१ "वहाँ भाव का लक्षण परिवर्तन इतना मात्र ही है और क्रिया का लक्षण इकट्ठा होना व पृथक् होना है। सभी द्रव्य भाववाले हैं; क्योंकि सबका स्वभाव पलटना (परिणमन) है। ऐसे पलटने के स्वभाव के परिणाम के कारण अन्वय और व्यतिरेकों को पाते हुए वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। अन्वय ध्रौव्यपने और व्यतिरेक उत्पाद-व्ययपने को बताता है। जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य क्रियावाले हैं।' पुद्गलद्रव्य परिणमस्वभाव के उपरांत क्षेत्रान्तर होने की क्रियावाले हैं। उनके क्षेत्रान्तर होने की योग्यता के कारण पृथक् परमाणु इकट्ठे होते हैं और इकट्ठे परमाणु पृथक् होते हैं। इसप्रकार पृथक् होते होने से और इकट्ठे मिलते होने से पुद्गलद्रव्य उत्पन्न होता है, टिकता है और विनष्ट होता है। इसप्रकार पृथक् होना, इकट्ठा होना, टिकना हुआ ही करता है - ऐसी क्रियावती शक्ति पुद्गल में विद्यमान है और उस कारण क्षेत्रान्तर होना हुआ ही करता है; परन्तु अज्ञानी जीव पुद्गल के इस स्वभाव को न देखकर, संयोग को देखता है और मानता है कि अमुक निमित्त था तो यह क्रिया हुई है। * यहाँ कंपन का अर्थ क्षेत्रान्तर समझना चाहिए। यहाँ पुद्गल का स्वभाव बतलाकर यह बतलाना है कि जीव पर में कुछ भी करने में समर्थ नहीं है। इसप्रकार सबका स्वतंत्र स्वभाव बतलाना है। जीव का प्रतिसमय परिणमनस्वभाव तो है ही, तदुपरान्त जीव में क्रियावतीशक्ति भी है। अपने कंपन स्वभाव के कारण वह उत्पन्न होता है, टिकता है और बदलता है।' शरीर और आत्मा की क्रियावती शक्ति को भलीभाँति ज्ञान में लेने से इस विपरीत मान्यता का अभाव हो जाता है कि एक पदार्थ दूसरे के कारण चलता है अथवा जीव नहीं होने से मुर्दा नहीं चलता । वस्तुतः दोनों द्रव्य क्रियावती शक्ति की गमनरूप अथवा स्थिररूप १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- १३ २. वही, पृष्ठ- १३ ४. वही, पृष्ठ १४ ३. वही, पृष्ठ- १४ ५. वही, पृष्ठ १४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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