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________________ प्रवचनसार गाथा १२२ विगत गाथा में द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म किस प्रकार होते हैं ? - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा कथंचित् भावकर्म का कर्ता तो है; पर द्रव्यकर्म का कर्ता कदापि नहीं । गाथा मूलतः इसप्रकार है - परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया । किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता । । १२२ ।। ( हरिगीत ) परिणाम आत्मा और वह ही कही जीवमयी क्रिया । वह क्रिया ही है कर्म जिय द्रवकर्म का कर्ता नहीं ।। १२२ ।। परिणाम स्वयं आत्मा है और वह जीवमय क्रिया है। क्रिया को कर्म माना गया है; इसलिए आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " आत्मा का परिणाम वस्तुतः आत्मा ही है; क्योंकि परिणाम के स्वरूप का कर्ता होने से परिणामी परिणाम से अनन्य है और जो उसका तथाविध परिणाम है; वह जीवमयी क्रिया है; क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणामलक्षणक्रिया आत्ममयता (निजमयता) से ही स्वीकार की गई है । जीवमयी क्रिया आत्मा के द्वारा स्वतंत्ररूप से प्राप्य अर्थात् प्राप्त करने योग्य होने से कर्म है; इसलिए परमार्थत: आत्मा अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का कर्ता है; किन्तु पुद्गलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं । अब यदि कोई ऐसा कहे कि तो फिर द्रव्यकर्म का कर्ता कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि पुद्गल का परिणाम वस्तुतः पुद्गल ही है; क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्ता होने से परिणाम से अनन्य है और जो उसका तथाविध परिणाम है, वह पुद्गलमयी क्रिया है; गाथा - १२२ १४५ क्योंकि सर्वद्रव्यों की परिणामस्वरूप क्रिया निजमय होती है - ऐसा स्वीकार किया गया है। पुद्गलमयी क्रिया पुद्गल के द्वारा स्वतंत्ररूप से प्राप्य अर्थात् प्राप्त करने योग्य होने से कर्म है; इसलिए परमार्थत: पुद्गल अपने परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का ही कर्ता है; किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का नहीं। निष्कर्ष रूप में यह समझना ही ठीक है कि आत्मा आत्मस्वरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलस्वरूप परिणमित नहीं होता।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। अन्त में निष्कर्ष के रूप में लिखते हैं कि यद्यपि कथंचित् परिणामी होने से जीव का कर्तापन सिद्ध है; तथापि निश्चयनय से वह अपने परिणामों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता तो व्यवहार से कहा जाता है | जब जीव शुद्धोपादानकारणरूप शुद्धोपयोग से परिणमित होता है, तब मोक्ष को प्राप्त करता है और अशुद्धोपादानकारणरूप अशुद्धोपयोग से परिणमित होता है, तब बंध को प्राप्त होता है। जीवों के समान पुद्गल भी निश्चयनय से अपने परिणामों का कर्ता है और व्यवहारनय से जीव के परिणामों का कर्ता कहा जाता है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ दोहा और २ मनहरण कवित्तों के माध्यम से इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ( मनहरण कवित्त ) परिनामरूप स्वयमेव आप आतमा है, जातैं परिनाम परिनामी में न भेद है। सोई परिनामरूप क्रिया जीवमयी होत, आपनी क्रिया तैं तनमयता अछेद है ।। जीव की जो क्रियाताको भावकर्म नाम कह्यौ, याको करतार जीव निहचै निवेद है। तातैं दर्व करम को आतमा अकरता है । याको करतार पुद्गल कर्म वेद है ।। १०९ । ।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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