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________________ प्रवचनसार अनुशीलन जिसप्रकार कभी पट में अपने स्थूल अगुरुलघुगुण द्वारा कालक्रम से प्रवर्तमान अनेक प्रकार रूप से परिणमित होने के कारण अनेकत्व की प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभाव पर्यायें हैं; उसीप्रकार समस्त द्रव्यों में अपनेअपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूति गुणात्मक स्वभाव पर्यायें हैं। जिसप्रकार पट में रूपादिक के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोतर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाली स्वभावविशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति गुणात्मकविभावपर्यायें हैं; उसीप्रकार समस्त परद्रव्यों में रूपादि के या ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाली स्वभावविशेषरूप अनेकत्व की आपत्ति गुणात्मकविभावपर्यायें हैं। वस्तुत: यह सर्वपदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय की प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था भली है; उत्तम है, पूर्ण है और योग्य है; दूसरी कोई व्यवस्था नहीं है; क्योंकि बहुत से जीव पर्यायमात्र का अवलम्बन करके, तत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप मोह को प्राप्त होते हुए परसमय होते हैं।" इसे भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “पदार्थ द्रव्यस्वरूप है। द्रव्य अनन्तगुणमय है। द्रव्यों और गुणों से पर्यायें होती हैं। पर्याय के दो प्रकार हैं - १. द्रव्यपर्याय, २. गुणपर्याय । इनमें से द्रव्यपर्याय के दो भेद हैं - १. समानजातीय - जैसे द्विअणुक, त्रि-अणुक इत्यादि स्कन्ध २. असमानजातीय - जैसे मनुष्य देव इत्यादि। ____ गुण-पर्याय के दो भेद हैं - १. स्वभावपर्याय - जैसे सिद्ध के गुणपर्याय २. विभावपर्याय - जैसे स्वपरहेतुक मतिज्ञानपर्याय । ऐसा जिनेन्द्र भगवान की वाणी से कथित सर्व पदार्थों का द्रव्यगुण-पर्यायस्वरूप ही यथार्थ है। जो जीव द्रव्य-गुण को न जानते हुए मात्र पर्याय का ही आलम्बन लेते हैं, वे निज स्वभाव को न जानते हुये गाथा-९३ परसमय हैं।" आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में भी इस गाथा के भाव को लगभग इसीप्रकार स्पष्ट किया है। कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका के सम्पूर्ण भाव को ३ मनहरण कवित्त, ४ दोहे और १ कवित्त - इसप्रकार कुल मिलाकर ८ छन्दों में विस्तार से छन्दोवद्ध करते हैं; जो मूलतः पठनीय है। पुनरुक्ति के भय से उन्हें यहाँ देना उचित प्रतीत नहीं होता। प्रवचनसारभाषाकवित्त में पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव एक पद्य में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (छप्पय) विमलज्ञान महि प्रगट ग्येय पादारथ जे हैं। सो सामान्य स्वरूप दर्वमय सर्व कहे हैं।। पुनि सुदर्व संजुक्त गुन सु निज निज अनंत धुअ। द्रव्य अवर गुन के सुपरिनमन करि सुभेद हुअ ।। कहिये सु दरव परजाय इक गुन परजाय सु दूसरिय । परजाय असुद्ध विर्षे मगन परसमय सु मिथ्यामतिय ।।२।। सम्यग्ज्ञान या केवलज्ञान में जो पदार्थ ज्ञेयरूप से जाने जाते हैं; वे सभी सामान्यरूप से द्रव्य कहलाते हैं। वे सभी द्रव्य अपने-अपने अनंत गुणों से सहित होते हैं । द्रव्य और गुणों के परिणमन के भी अनेक भेद हैं। इनमें से एक द्रव्यपर्याय कही जाती है और दूसरी गुणपर्याय कही जाती है और अशुद्धपर्यायों में मगन जीव परसमय (मिथ्यादृष्टि) कहे जाते हैं। उक्त गाथा और उसकी टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "यह ज्ञेय अधिकार चलता है। ज्ञान में ज्ञात होनेयोग्य सर्व पदार्थों को ज्ञेय कहते हैं। छह द्रव्य के समुदायरूप यह विश्व है। उसमें रहनेवाले
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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