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________________ प्रवचनसार गाथा ११५ ११४वीं गाथा में सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद अथवा एक ही द्रव्य में अन्यपना और अनन्यपने में दिखाई देनेवाले विरोध का नयविवक्षा से शमन किया था; अब इस ११५वीं गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हुए समस्त विरोध को समाप्त करनेवाली सप्तभंगी की चर्चा करते हैं; जो इसप्रकार है अत्थित्तियणस्थित्तिय हवदिअवत्तव्वमिदिपुणो दव्वं । पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।।११५।। (हरिगीत) अपेक्षा से द्रव्य 'है' 'है नहीं' 'अनिर्वचनीय है। 'है है नहीं' इसतरह ही अवशेष तीनों भंग हैं ।।११५।। द्रव्य किसी पर्याय से अस्ति, किसी पर्याय से नास्ति और किसी पर्याय से अवक्तव्य है। इसीप्रकार किसी पर्याय से अस्ति-नास्ति अथवा किसी पर्याय से अन्य तीन भंगरूप कहा गया है। ध्यान रहे यहाँ पर्याय शब्द अपेक्षा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "द्रव्य स्वरूप की अपेक्षा से स्यात्-अस्ति; पररूप की अपेक्षा से स्यात्-नास्ति; स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात्-अवक्तव्य; स्वरूप-पररूप के क्रम की अपेक्षा से स्यात्-अस्ति-नास्ति; स्वरूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-अवक्तव्य; पररूप और स्वरूप-पररूप की अपेक्षा से स्यात्-नास्ति-अवक्तव्य और स्वरूप की, पररूप की तथा स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है। गाथा-११५ ११७ द्रव्य का कथन करने में जो स्वरूप से सत् है; पररूप से असत् है; जिसका स्वरूप और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है; जो स्वरूप से पररूप से क्रमश: सत्-असत् है; जो स्वरूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् सत्-अवक्तव्य है; जो पररूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् असत्-अवक्तव्य है; और जो स्वरूप से, पररूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् सत्-असत्-अवक्तव्य है। ऐसे अनंत धर्मों वाले द्रव्य के एक-एक धर्म का आश्रय लेकर विवक्षितता और अविवक्षितता के विधि-निषेध के द्वारा प्रगट होनेवाली सप्तभंगी सतत् सम्यक्तया उच्चारित करने पर स्यात्काररूपी अमोघ मंत्र पद के द्वारा ‘एवकार' में रहनेवाले समस्त विरोध-विष के मोह को दूर करती है।" इस महत्त्वपूर्ण गाथा एवं उसकी टीका के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी एक छप्पय और एक मनहरण कवित्त - इसप्रकार दो छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है - (छप्पय) दरब कथंचित अस्तिरूप राजै इमि जानो। बहुर कथंचित नास्तिरूप सोई परमानो।। होत सोई पुनि अवक्तव्य ऐसे उर धरनी। फिर काहू परकार सोइ उभयातम वरनी ।। पुनि और सुभंगनि के विर्षे जथाजोग सोई दरव । निरबाध बसत निजरूपजुत श्रीगुरु भेदभनेसरव ।।७४।। द्रव्य कथंचित् अस्तिरूप और कथंचित् नास्तिरूप शोभायमान हो रहा है - इस बात को प्रमाणित करो। वही द्रव्य किसी अपेक्षा अवक्तव्य है तथा किसी अपेक्षा उभयरूप होता है - यह बात हृदय में धारण करो। इसीप्रकार अन्य भंगों के बारे में जानना चाहिए। श्रीगुरु ने समस्त रहस्य को उद्घाटित किया है कि यह निजरूप आत्मा निर्बाधरूप से रहता है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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