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________________ प्रवचनसार गाथा ११२-११३ १११वीं गाथा में सत् - उत्पाद और असत् उत्पाद में कोई विरोध नहीं है - यह सिद्ध किया गया था; अब इन ११२ व ११३वीं गाथाओं में सत्-उत्पाद को अनन्यत्व के द्वारा तथा असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो । किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं होदि । । ११२ ।। वो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कथं लहदि । । ११३ ।। ( हरिगीत ) परिणमित जिय नर देव हो या अन्य हो पर कभी भी । द्रव्यत्व को छोड़े नहीं तो अन्य होवे किसतरह ।। ११२ ।। मनुज देव नहीं है अथवा देव मनुजादिक नहीं । ऐसी अवस्था में कहो कि अनन्य होवे किसतरह । । ११३ ।। परिणमित होता हुआ जीव, मनुष्य, देव या अन्य तिर्यंच, नारकी या सिद्ध होगा; परन्तु क्या वह मनुष्यादिरूप होने से जीवत्व को छोड़ देगा ? नहीं, कदापि नहीं; तो फिर वह अन्य कैसे हो सकता है ? मनुष्य देव नहीं है अथवा देव, मनुष्य या सिद्ध नहीं है - ऐसी स्थिति में वे अनन्य कैसे हो सकते हैं ? एकसाथ समागत ये दोनों गाथायें एकदम परस्पर विरुद्ध दिखाई देती हैं। एक कहती है कि वे अन्य-अन्य कैसे हो सकते हैं और दूसरी कहती है कि वे अनन्य कैसे हो सकते हैं ? असल बात यह है कि उक्त गाथाओं में सत्-उत्पाद में अनन्यपना और असत् - उत्पाद में अन्यपना सिद्ध किया गया है। गाथा - ११२-११३ १०७ इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है " द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तियों को कभी न छोड़ता हुआ द्रव्य सत् ही है, विद्यमान ही है । द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेक व्यक्तित्व का उत्पाद होता है; उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति अच्युत रहती है; इसकारण द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यपने से द्रव्य का सत् उत्पाद निश्चित होता है। अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं- जीव द्रव्य होने से और द्रव्य पर्यायों में वर्तने से जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्याय में अवश्यमेव परिणमित होगा; परन्तु वह जीव उस पर्यायरूप होकर भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ता है क्या ? यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (त्रैकालिक-अस्तित्व) जिसके प्रगट है - ऐसा वह जीव वही न हो ? पर्यायें पर्यायभूत व्यतिरेक व्यक्तित्व के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं। पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ जो क्रमानुसार उत्पाद होता है, उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेक व्यक्ति का पूर्व में असत् पना होने से पर्यायें अन्य ही हैं। इसलिए पर्यायों की अन्यता द्वारा पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्यायों से अपृथक् द्रव्य का असत् उत्पाद निश्चित होता है। अब इसी बात को उदाहरण द्वारा विशेष स्पष्ट करते हैं मनुष्य देव या सिद्ध नहीं है और देव मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इसप्रकार न होता हुआ जीव अनन्य कैसे हो सकता है ? कंकण आदि पर्यायों में उत्पन्न होनेवाले स्वर्ण की भाँति जीव भी मनुष्यादि पर्यायों में उत्पन्न होता हुआ पर्यायापेक्षा अन्य अन्य ही है।" उक्त गाथाओं का भाव यह है कि जिसप्रकार सोने की दृष्टि से देखने पर कंकणादि पर्यायों में परिणमित होता हुआ सोना सोना ही रहता है,
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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