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________________ १०० प्रवचनसार अनुशीलन ( कुण्डलिया ) ऐसो गुन कोऊ नहीं दरव बिना जो होय । विना दरव परजाय हू जग में लखै न कोय ।। जग में लखे न कोय बहुरि दिढतर ऐसे सुन । दरवहि का अस्तित्वभाव सोई सत्ता गुन।। तिस कारन स्वयमेव दरव सत्ता ही है सो । अनेकांत तैं सधत वृन्द निरदूषन ऐसो ।। जो द्रव्य के बिना होता हो, ऐसा कोई गुण नहीं होता । इसीप्रकार पर्यायें भी द्रव्य के बिना नहीं देखी जातीं। जग में आजतक किसी ने भी गुण- पर्याय से रहित द्रव्य नहीं देखा । इस बात को दृढता से सुनो कि द्रव्य का अस्तित्वभाव ही सत्ता गुण है। इस कारण द्रव्य स्वयं ही सत्तास्वरूप है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि यह सब अनेकान्त से निर्दोष सिद्ध होता है। इस गाथा के भाव को पण्डित देवीदासजी अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया इकतीसा ) यह लोक मांहिं कोई और औसौ गुन नांहि तासौं द्रव्य सौं जुदागी करिकैं बताइये । तैसें ही सु औसौ और पुनि परजाय नांहीं दरव सौ जासौं भिन्न भिन्नता लगाइये ।। द्रव्य गुन परजाय तीन ही अभेद जार्थं वस्तु आपु सत्ता के स्वरूप समुझाइये । गुन पीततादि कुंडलादि परजाय जैसे कंचन स्वरूप तैं जुदे न कहूँ पाइये ।। ३७ ।। जिसप्रकार पीतादि गुण और कुण्डलादि पर्यायों से भिन्न कोई सोना नहीं है; उसीप्रकार इस लोक में ऐसा कोई गुण नहीं है; जिसे द्रव्य से जुदा किया जा सकता हो। इसीप्रकार ऐसी कोई पर्याय नहीं है, जिसे द्रव्य से गाथा - ११० १०१ भिन्न किया जा सके । द्रव्य, गुण और पर्याय - तीनों अभेद हैं; इसलिए वस्तु स्वयं सत्तास्वरूप है। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ द्रव्यत्व शब्द का अर्थ जो कि द्रव्यत्व नाम का सामान्य गुण है, उस अर्थ में नहीं लेना है, अपितु जो सत् है, वह द्रव्य है और सत्ता है, वह द्रव्यत्व है । द्रव्य और द्रव्यत्व अर्थात् सत् और सत्ता भिन्न नहीं है। आत्मा और पुद्गल द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में रह रहे हैं, यह स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप परिणाम है, जिसे सत्तागुण कहा है। प्रत्येक आत्मा और जड़ पदार्थों की सत्ता पृथक् पृथक् है और प्रत्येक पदार्थ की सत्ता अपने-अपने में है, अपने उत्पाद-व्यय-ध्रुव अपने परिणाम से पृथक नहीं हैं और वे अन्य के उत्पाद-व्यय-ध्रुव परिणाम से पृथक् हैं - ऐसा भेदज्ञान करना सम्यग्ज्ञान है । ३" इस गाथा में सोने का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि सत्ता गुण और सत् द्रव्य - ये अनन्य ही हैं; अन्य-अन्य नहीं । १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ २८७ २. वही, पृष्ठ- २८८ ३. वही, पृष्ठ- २८९ त्याग खोटी चीज का किया जाता है और दान अच्छी चीज का दिया जाता है। यही कहा जाता है कि क्रोध छोड़ो, मान छोड़ो, लोभ छोड़ो। यह कोई नहीं कहता कि ज्ञान छोड़ो। जो दुःखस्वरूप हैं, दुःखकर हैं, आत्मा का अहित करनेवाले हैं - वे मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव ही हेय हैं, त्यागने योग्य हैं, इनका ही त्याग किया जाता है। इनके साथ ही इनके आश्रयभूत अर्थात् जिनके लक्ष्य से मोह-राग-द्वेष भाव होते हैं - ऐसे पुत्रादि चेतन एवं धन-मकानादि अचेतन पदार्थों का भी त्याग होता है। पर मुख्य बात मोहराग-द्वेष के त्याग की ही है, क्योंकि मोह-राग-द्वेष के त्याग से इनका त्याग नियम से हो जाता है; किन्तु इनके त्याग देने पर भी यह गारंटी नहीं कि मोहराग-द्वेष छूट ही जावेंगे। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ- १२२
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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