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________________ गाथा-१०५ प्रवचनसार अनुशीलन इसीलिए द्रव्य स्वयं ही सत्ता है, सत्तास्वरूप है - ऐसा स्वीकार करना चाहिए; क्योंकि भाव और भाववान का अपृथकत्व द्वारा अनन्यत्व है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए उक्त संदर्भ में बौद्ध और नैयायिक मतों को प्रस्तुत कर उनका निराकरण भी करते हैं। कहते हैं कि सत्ता के समवाय के कारण द्रव्य सत् नहीं है; अपितु सत्ता स्वयं ही द्रव्य है। वे यह भी कहते हैं कि द्रव्य उपचार से सत्तास्वरूप नहीं है, अपितु परमार्थ से सत्तास्वरूप है। ध्यान रहे नैयायिक यह मानते हैं कि द्रव्य सत्ता के समवाय से सत् है, स्वयं सत् नहीं और बौद्ध यह मानते हैं कि द्रव्य का अस्तित्व उपचार से है, परमार्थ से नहीं। द्रव्य स्वयं सत्तास्वरूप है और द्रव्य का अस्तित्व वास्तविक है, परमार्थ है; उपचार से नहीं - यहाँ यह कहकर नैयायिक और बौद्ध - दोनों मतों का खण्डन कर दिया। वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (छप्पय) जो यह दरव न होय आपु सत्ता को धारक। तौ तामें ध्रुवभाव कहा आवैथितिकारक।। जोध्रुवतानहिंधरैकहोतबदरबहोय किमि। तातें सत्तारूप दरब स्वयमेव आपु इमि ।। है दरव गुनी सत्ता सुगुन सदा एकता भाव धरि । परदेशभेद इनमें नहीं यों भवि वृन्द प्रतीत करि ।। यदि यह द्रव्य स्वयं ही सत्ता का धारक नहीं है तो उसमें स्थिति करनेवाला ध्रुवभाव कैसे आ सकता है ? यदि द्रव्य ध्रुवता को धारण नहीं करे तो वह द्रव्य ही कैसे होगा ? इसलिए द्रव्य स्वयमेव सत्तास्वरूप है। अरे भाई ! द्रव्य गुणी है और सत्ता गुण है और ये दोनों सदा एक भावरूप ही हैं; इसमें प्रदेशभेद नहीं है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! इस बात का विश्वास करो। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया इकतीसा) जौ न होहि दर्व सत्तारूप तौ सु सत्तारूप दर्व ताहि भयौ सो असत्तारूप चहिए। सत्ता विना वस्तु है सुकैसैं दर्व रूप होहि अथवा सुवस्तु सत्ता तैं सुभिन्न लहिये ।। ताथै दर्व आप ही अभेद एक सत्ता रूप जानि जिन उकति प्रमान सरदहिये । द्रव्य है सुगुनी जाकौ गुन है स्वरूप सत्ता गुन गुनी भेद न प्रदेस भेद कहिये ।।२२।। यदि द्रव्य सत्तास्वरूप न हो तो उस सत्तावाले द्रव्य को असत्तारूप होना चाहिए; परन्तु सत्ता के बिना कोई भी वस्तु द्रव्यरूप कैसे हो सकती है ? अथवा वस्तु को सत्ता से भिन्न मानना होगा। इसलिए जिसप्रकार जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि द्रव्य स्वयं ही एक अभेदरूप है - ऐसा ही श्रद्धान कर लेना चाहिए। द्रव्य गुणी है और उसका गुण है सत्ता - इसप्रकार इनमें यद्यपि गुण-गुणी भेद है; तथापि इनमें प्रदेश भेद नहीं है। स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ “यदि गुण-गुणी भिन्न हैं - ऐसा माना जावे तो गुणी का ही नाश होगा। अत: जब से वस्तु है, तभी से सत्ता है। इस जीव को अथवा किसी भी पदार्थ को किसी ने उत्पन्न नहीं किया है अर्थात् किसी की सत्ता से अपनी सत्ता नहीं है और कोई भी द्रव्य अपनी सत्ता से स्वयं भिन्न नहीं है। गुण और गुणी में नाम, संख्या तथा लक्षणभेद है; किन्तु प्रदेशभेद नहीं है। अपने सत्तास्वरूप द्रव्य के ऊपर नजर करने से धर्म होता है। १. यदि द्रव्य स्वयं से ही सत् न हो तो ध्रुवत्व के असंभव होने के कारण द्रव्य स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है, वस्तु ही नहीं रहती। २. यदि द्रव्य अपने सत्ता गुण से भिन्न हो तो सत्ता गुण का प्रयोजन नहीं रहता; क्योंकि सत्ता का कार्य तो द्रव्य के अस्तित्व को रखना है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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