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________________ प्रवचनसार गाथा १०४ विगत गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायों (द्रव्यपर्यायों) द्वारा द्रव्य के उत्पादव्यय - ध्रौव्य बताये गये थे और इस गाथा में एकद्रव्यपर्यायों (गुणपर्यायों) द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य बताये जा रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिद्धं । तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति । । १०४ । । ( हरिगीत ) गुण से गुणान्तर परिणमें द्रव स्वयं सत्ता अपेक्षा । इसलिए गुणपर्याय ही हैं द्रव्य जिनवर ने कहा ।। १०४ ।। सत्तापेक्षा अविशिष्टरूप द्रव्य स्वयं ही गुण से गुणान्तररूप परिणमित होता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य स्वयं ही एक गुणपर्याय में से अन्य गुणपर्यायरूप परिणमित होता है और द्रव्य की सत्ता गुणपर्यायों की सत्ता के साथ अभिन्न ही रहती है। इससे गुणपर्यायें द्रव्य ही कही गई हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 'एकद्रव्यपर्यायें गुणपर्यायें हैं; क्योंकि गुणपर्यायों को एकद्रव्यपना है। उनका एकद्रव्यत्व आम्रफल की भाँति सिद्ध होता है; जो इसप्रकार हैजिसप्रकार आम (आम्रफल) स्वयं ही हरेपन से पीलेपन रूप परिणमित होता हुआ पहले और बाद में हरेपन और पीलेपन के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है; इसकारण हरेपन और पीलेपन के साथ अभिन्न सत्तावाला होने से एक ही वस्तु है; अन्य वस्तु नहीं। इसीप्रकार द्रव्य स्वयं ही पूर्वावस्था में स्थित गुणों से उत्तरावस्था में स्थित गुणरूप परिणमित होता हुआ पूर्व और उत्तर अवस्था में स्थित उन गुणों के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है; इसकारण पूर्व और उत्तर गाथा - १०४ ७५ अवस्था में स्थित गुणों के साथ अभिन्न सत्तावाला होने से एक द्रव्य ही है, द्रव्यान्तर नहीं। जिसप्रकार पीलेपन से उत्पन्न होता, हरेपन से नष्ट होता और आमरूप से स्थिर रहता होने से आम एक वस्तु की पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययध्रौव्य है । उसीप्रकार उत्तरावस्था में स्थित गुण से उत्पन्न, पूर्वावस्था में स्थित गुण से नष्ट और द्रव्यत्व गुण से स्थित होने से द्रव्य एकद्रव्यपर्याय से उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यरूप है। यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि अनेक द्रव्यों की मिली हुई पर्यायों को द्रव्यपर्याय या व्यंजनपर्याय कहते हैं और एक द्रव्य की पर्यायों को गुणपर्याय या अर्थपर्याय कहते हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; पर साथ में रंगों के उदाहरण के साथ संसारी जीव की विभावगुणपर्यायों पर भी घटित कर देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हुए गाथा और टीका की विषयवस्तु को सहजभाव से प्रस्तुत कर देते हैं। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को अत्यन्त सरल भाषा में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - दोहा ) जैसें फल इक आम कौ हरित लखै सब कोइ । समै पाड़ करि सो कछु पीत वरन पुनि होइ ।। १९ ।। पूरव उत्तर आम के विषै अवस्था दोइ । तिन्हि करिकैं वह आम पुनि और वस्तु नहिं होई ।। २० ।। पीतता सु करि उपजही विनसै हरित सुभाय । आम दसा करि थिर लियें दरव सुगुन परजाय ।। २१ ।। जिसप्रकार आम के फल को प्रारंभिक अवस्था में सभी लोग हरे के रूप में देखते हैं; वही आम का फल समय बीतने पर काल पाकर पीला हो जाता है । आम में पूर्वावस्था और उत्तरावस्था - इसप्रकार दो अवस्थायें होती हैं; उनके कारण आम अन्यवस्तु नहीं हो जाता। एक आम पीलेपन
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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