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________________ प्रवचनसार अनुशीलन ज्ञानस्वभाव से आत्मा को भी नहीं मानता। देव-गुरु-शास्त्र भी ऐसी ही वस्तुस्थिति कहते हैं। ज्ञेय का स्वभाव भी ऐसा ही है और आत्मा का स्वभाव उन्हें जानने का है - ऐसी जो वस्तुस्थिति है, वह समझने योग्य है। अगली पर्याय का उत्पाद, पीछे की पर्याय का व्यय और अखण्ड संबंध की अपेक्षा से ध्रुवता - इन तीनों के साथ द्रव्य अविनाभावी है, ऐसा द्रव्य अबाधितरूप से उत्पाद-व्यय- ध्रुवरूप ( त्रिलक्षणरूप) चिन्ह वाला है। यदि मात्र उत्पाद ही माना जाये तो पुरानी पर्याय के व्यय बिना नवीन पर्याय की उत्पत्ति नहीं होगी अथवा ध्रुव के आधार बिना असत् की उत्पत्ति नहीं होगी, इसलिए एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों साथ में हों तभी उत्पाद होगा। यदि मात्र व्यय ही माना जाये तो नवीन पर्याय के उत्पाद बिना पुरानी पर्याय का व्यय ही नहीं होगा अथवा ध्रुवपना रहे बिना ही व्यय होगा तो सत् का ही नाश हो जायेगा; इसलिए एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों साथ ही हों तभी व्यय सिद्ध होगा । उत्पाद-व्यय के बिना मात्र ध्रुव को ही मानें तो उत्पाद-व्ययरूप व्यतिरेक के बिना ध्रुवपना ही नहीं रहेगा अथवा एक अंश ही सम्पूर्ण द्रव्य हो जायेगा। इसलिए उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों एक समय में साथ ही हों तभी ध्रुवपना रह सकेगा। इसलिए द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रुववाला एकसाथ ही मानना युक्तियुक्त है । सारांश यह है कि पूर्व पूर्व परिणामों के व्यय के साथ, पीछे-पीछे के परिणामों के उत्पाद के साथ और अन्वय अपेक्षा से ध्रुव के साथ द्रव्य को अविनाभावीवाला मानना चाहिए। मात्र उत्पाद, मात्र व्यय या मात्र ध्रुवता द्रव्य का लक्षण नही है; किन्तु उत्पाद, व्यय और ध्रुव ये तीनों एकसाथ ही द्रव्य का लक्षण है ऐसा जानना । " इसप्रकार इस गाथा में यही बताया गया है कि सत्; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक ही होता है; अतः ये तीनों प्रत्येक वस्तु में एक समय में एकसाथ ही होते हैं। • ६० १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ १९५-१९६ ३. वही, पृष्ठ-१९७-१९८ २. वही, पृष्ठ- १९७ ४. वही, पृष्ठ- १९८ प्रवचनसार गाथा १०१ विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि सत् उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है और वह सत् ही द्रव्य का लक्षण है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों एक समय में, एक ही द्रव्य में एक साथ ही होते हैं और अब इस १०१वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि ये सब एक द्रव्य ही हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।। १०१ । । ( हरिगीत ) पर्याय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव द्रव्य में पर्यायें हैं । बस इसलिए तो कहा है कि वे सभी इक द्रव्य हैं । । १०१ ।। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं - यह नियम है; इसलिए ये सब द्रव्य ही हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों के आश्रय से हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं; इसलिए यह सब द्रव्य ही हैं, द्रव्यान्तर नहीं । प्रथम तो पर्यायें द्रव्याश्रित हैं; क्योंकि वृक्ष की भाँति समुदायी समुदायस्वरूप होता है । जिसप्रकार समुदायी वृक्ष; स्कन्ध, मूल और शाखाओं का समुदाय रूप होने से स्कन्ध, मूल और शाखाओं से आलम्बित दिखाई देता है; इसीप्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायों के समुदायस्वरूप होने से पर्यायों के द्वारा अवलम्बित भासित होता है। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार स्कन्ध, मूल और शाखायें वृक्षाश्रित ही हैं; उसीप्रकार पर्यायें द्रव्याश्रित ही हैं; द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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