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________________ ५६ प्रवचनसार अनुशीलन सम्भव नहीं है। जिसप्रकार प्रत्येक प्रदेश का स्वस्थान निश्चित है; उसी प्रकार प्रत्येक परिणाम (पर्याय) का स्वकाल भी निश्चित है। जिसप्रकार सिनेमा की रील में लम्बाई है, उस लम्बाई में जहाँ जो चित्र स्थित है, वह वहीं रहता है, उसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है; उसीप्रकार चलती हुई रील में कौन-सा चित्र किस क्रम से आएगा यह भी निश्चित है, उसमें भी फेरफार सम्भव नहीं है। आगे कौन-सा चित्र आएगा - भले ही इसका ज्ञान हमें न हो, पर इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, आयेगा तो वह अपने नियमितक्रम में ही। जैसे सोपान (जीना) पर सीढियों का क्षेत्र अपेक्षा एक अपरिवर्तनीय निश्चितक्रम होता है; उसीप्रकार उन पर चढने का अपरिवर्तनीय कालक्रम भी होता है। जिसप्रकार उन पर क्रम से ही चला जा सकता है; उसीप्रकार उन पर चढने का कालक्रम भी है। जिसप्रकार जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं; उसीप्रकार तीनकाल के जितने समय हैं, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं। एक-एक समय की एक-एक पर्याय निश्चित है। जिसप्रकार लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु खचित है; उसी प्रकार तीनोंकाल के एक-एक समय में प्रत्येक द्रव्य की एक-एक पर्याय खचित है । गुणों की अपेक्षा से विचार करें तो तीनों कालों के एक-एक समय में प्रत्येक गुण की एक-एक पर्याय भी खचित है। इसप्रकार जब प्रत्येक पर्याय स्वसमय में खचित है - निश्चित है, तो फिर उसमें अदला-बदली का क्या काम शेष रह जाता है ? इस सन्दर्भ में टीका में समागत यह वाक्य भी ध्यान देने योग्य है कि 'प्रत्येक परिणाम अपने-अपने अवसर पर ही प्रगट होता है।' इन सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस समय, जिस कारण से होनी है, वह तदनुसार ही होती है। " १. क्रइसकी इस माथार में यही बताया गया है कि प्रत्येक पदार्थ का प्रदेशक्रम और पर्यायक्रम पूर्णत: सुनिश्चित है । यदि इस सन्दर्भ में विशेष जिज्ञासा प्रवचनसार गाथा १०० विगत गाथा में यह बताया गया है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य का स्वभाव है; अब इस १००वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि उत्पादव्यय - ध्रौव्य में अविनाभाव है। तात्पर्य यह है कि ये तीनों एक साथ ही रहते हैं; एक के बिना दूसरा नहीं रहता। गाथा मूलतः इसप्रकार है - ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो । उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।। १०० ।। ( हरिगीत ) भंगबिन उत्पाद ना उत्पाद बिन ना भंग हो । उत्पादव्यय हो नहीं सकते एक ध्रौव्यपदार्थ बिन ।। १०० ।। उत्पाद, भंग (व्यय) बिना नहीं होता और भंग, उत्पाद बिना नहीं होता तथा उत्पाद और व्यय, ध्रौव्य के बिना नहीं होते। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं "वस्तुतः बात यह है कि सर्ग (उत्पाद) संहार (व्यय) के बिना नहीं होता और संहार सर्ग के बिना नहीं होता। इसीप्रकार सृष्टि (उत्पाद) और संहार, स्थिति (ध्रौव्य) के बिना नहीं होते और स्थिति, सर्ग और संहार के बिना नहीं होती। अधिक क्या कहें- जो सर्ग है, वही संहार है; जो संहार है, वही सर्ग है; जो सर्ग और संहार हैं, वही स्थिति है तथा जो स्थिति है, वही सर्ग और संहार हैं। अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं जो कुंभ का सर्ग है, वह मृत्तिकापिंड का संहार है; क्योंकि भाव का भावान्तर के अभाव-स्वभाव से अवभासन है। तात्पर्य यह है कि भाव अन्यभाव के अभावरूप ही होता है। जो मृत्तिकापिंड का संहार है, वह कुंभ का सर्ग है; क्योंकि अभाव
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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