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________________ गाथा-९८ प्रवचनसार अनुशीलन इसका शुक्लत्व गुण हैं' इसप्रकार गुणवाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है - इसप्रकार अताद्भाविक भेद उन्मग्न (उदित) होता है; परन्तु जब द्रव्यार्थिकनय से देखा जाय, तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष अस्त हो गये हैं - ऐसे उस जीव को 'शुक्ल वस्त्र ही है' इत्यादि की भाँति ऐसा द्रव्य ही हैं' - इसप्रकार देखने पर अताद्भाविक भेद समूल ही निमग्न (अस्त) हो जाता है। उसके निमग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना निमग्न होता है; इसलिए समस्त ही एक द्रव्य होकर रहता है। जब भेद उन्मग्न होता है तो उसके आश्रय से उत्पन्न होती हुई प्रतीति उन्मग्न होती। उसके उन्मग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना उन्मग्न होता है; तब भी द्रव्य के पर्यायरूप से उन्मग्न होने से, जिसप्रकार जलराशि से जलतरंगे व्यतिरिक्त (भिन्न) नहीं हैं; उसीप्रकार द्रव्य से गुण व्यतिरिक्त नहीं हैं। इससे यह निश्चित हुआ कि द्रव्य स्वयमेव सत् है। जो ऐसा नहीं मानता, वह वस्तुतः परसमय (मिथ्यादृष्टि) ही है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका की बात को संक्षेप में दुहरा देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को ३ मनहरण छन्द और १ दोहा - इसप्रकार ४ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिसमें कतिपय छन्द इसप्रकार हैं (दोहा) जदपि जीव पुद्गल मिले, उपजहिं बहु परजाय । तदपि न नूतन दरव की, उतपति वरनी जाय ।। यद्यपि जीव और पुद्गल मिलकर अनेक असमानजातीयद्रव्यपर्यायरूप परिणमित होते हैं; तथापि नये द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती। (मनहरण) द्रव्य गुनखान तामें सत्ता गुन है प्रधान, गुनी-गुन को यहाँ प्रदेशभेद नाहीं है। संज्ञा संख्या लच्छन प्रयोजन द्रव्यमाहिं, कथंचित भेद पैन सर्वथा कहाहीं है।। दंड के धरे तैं जैसे दंडी तैसे यहाँ नाहि, यहाँ तो स्वरूप तैं अभेद ठहराहीं है। दर्व को सुभाव है अनंत गुनपर्जबंत, ताको सांचो ज्ञान भेदज्ञानी वृन्द पाहीं है।। यद्यपि द्रव्य गुणों की खान है; तथापि उनमें सत्ता गुण मुख्य है । गुण और गुणी में प्रदेशभेद नहीं है। यद्यपि संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा इनमें कथंचित् भिन्नता है; तथापि सर्वथा भेद नहीं है। जिसप्रकार डंडा धारण करने से किसी को डंडी कहा जाता है; उसप्रकार की बात यहाँ नहीं है। कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं कि यहाँ तो स्वरूप की अपेक्षा अभेद ही है । द्रव्य का स्वभाव तो अनंत गुणपर्यायवाला है। उसका सच्चा ज्ञान तो भेदज्ञानियों को ही होता है। (मनहरण) जब परजायद्वार दरव विलोकिये तो, गुनी-गुन भेदनि की उठत तरंग है। और जब दर्वदिष्ट देखिये तो गुनी-गुन, भेदभाव डूब रहै एक रस रंग है।। जैसे सिन्धुमाहिं भेद जद्दपिकलोलिनि तें, निहचै निहारै वारि सिंधु ही को अंग है। तैसे दोनों नैन के समान दोनों नयननि तें, वस्तु को नदेखै सोई मिथ्याती कुढंग है।। जब द्रव्य को पर्यायदृष्टि से देखा जाता है तो गुण-गुणी भेद की तरंगे
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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