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________________ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-२०० ४५७ सोई समरसी वीतराग साम्यभाव वृन्द, मुकत को मारग प्रमानत प्रवीना है।।१३४।। जिसप्रकार तीर्थंकर आदि ने अपने स्वरूप को जानकर उसका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण किया है; कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हमने भी उसीप्रकार अपने ज्ञायकस्वभाव को पहिचानकर उसमें अपनापन धारण किया है और समस्त परवस्तुओं से ममत्व को त्यागकर निर्ममत्व भाव में विश्राम लिया है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि हमने भी उसी समरसी वीतरागी साम्यभाव को मुक्ति का मार्ग माना है, प्रमाणित किया है। मेरा यह ज्ञायक सुभाव जो विराजत है, तासों और ज्ञेयनि सों ऐसो हेत झलकै। कैंधों वे पदारथ उकीरे ज्ञान थंभमाहिं, कैंधों ज्ञान पटवि लिखे हैं अचलकै।। कैंधों ज्ञान कूप में समान हैं सकल ज्ञेय, कैधों काहू कीलिराखे त्याग तन पलकै। कैधों ज्ञानसिंधुमाहिं डूबे धो लपटि रहे, ___कैधों प्रतिबिंबित हैं सीसे के महल कै।।१३५।। मेरा जो ज्ञायकस्वभाव शोभायमान हो रहा है, उससे ज्ञेयों का इसप्रकार वात्सल्य भाव झलकता है कि वे ज्ञेयपदार्थ ज्ञान के खंभे में उत्कीर्ण कर दिये हैं अथवा ज्ञानरूपी पट (वस्त्र) में लिख (चित्रित) दिये हैं अथवा उन्हें ज्ञान में कीलित कर रखा है अथवा ज्ञानसागर में सभी ज्ञेय डूब गये हैं, ज्ञानस्वभाव में लिपट रहे हैं और दर्पणों से सज्जित महल में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। ऐसो ज्ञान ज्ञेय को बन्यो है सनबंध तऊ, मेरो रूप न्यारो जैसें चंद्रमा फलक में । अनादिसों और रूप भयो है कदापि नाहिं, ज्ञायक सुभाव लिये राजत खलक में ।। ताको अब निहचै प्रमान करि वृन्दावन, अंगीकार कियौ भेदज्ञान की झलक में। त्यागी परमाद परमोद धारी ध्यावत हों, जातै पर्म धर्म शर्म पाइये पलक में ।।१३६।। यद्यपि ज्ञान और ज्ञेयों का इसप्रकार संबंध बना हुआ है, तथापि जिसप्रकार दर्पण में झलकनेवाला चन्द्रमा दर्पण से भिन्न है; उसीप्रकार मेरा रूप भिन्न है और उसमें झलकनेवाले पदार्थ भिन्न हैं। सम्पूर्ण विश्व में आत्मा ज्ञायकस्वभाव के रूप में शोभायमान हो रहा है। यह आत्मा अनादि से आजतक पररूप कभी भी नहीं हुआ है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मैंने भेदज्ञान की झलक में निश्चय से प्रमाणित कर लिया है और अब मैं प्रमाद को त्यागकर, प्रमोद धारणकर; उसी ज्ञायकस्वभावी आत्मा का ध्यान करता हूँ, इससे मैं पल भर में परमधर्म से अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करूँगा। पण्डित देवीदासजी भी एक छन्द में इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया इकतीसा) सुद्ध आतमाकौंसाधिनिजग्यान कौं अराधि जैसैं भव्यजीव जे अनंत मुक्ति गये हैं। तैं ही भांति तीर्थंकर आदि और सुद्ध रूप जानि आप अनुभौ करें विसुद्ध भये हैं।। तैसे ही सुसबको जनैया जो सुजान्यौ हम परद्रव्य सौं ममत्व भाव त्यागि दिये हैं। होइ कैं सुनिश्चल स्वरूप पाइकैंसु एक वीतराग भाव तिहि रूप परिनयै हैं ।।१६३।। जिसप्रकार भूतकाल में अनंत भव्यजीव शुद्धात्मा की साधना करके, निजज्ञान की आराधना करके मुक्ति गये हैं, वैसे ही तीर्थंकर आदि महापुरुष भी अपने शुद्धरूप को जानकर अपना अनुभव करके विशुद्ध हो गये हैं; उसीप्रकार हमने भी सबके जाननेवाले को जान लिया है,
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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