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________________ गाथा-१९९ ४५१ ४५० प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार मैंने मोक्षमार्ग निर्धारित किया है और उसमें प्रवर्तन कर रहा हूँ।" उक्त कथन में ध्यान देने की बात यह है कि गाथा में जिन, जिनेन्द्र और श्रमण शब्द आये हैं; जिनका समान्य अर्थ चरमशरीरी सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली तथा चरमशरीरी और अचरमशरीरी सभी मुनिराज तो हो सकता है; परन्तु यहाँ 'श्रमण' शब्द से अचरमशरीरी अर्थात् उसी भव से मोक्ष नहीं जानेवाले मुमुक्षु भी लिये गये हैं; जिनमें ज्ञानी श्रावक और मुनिराज - सभी आ जाते हैं। साथ में यह लिखा है कि ये सभी शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग से सिद्ध हुए हैं। यहाँ एक प्रश्न सहज ही संभव है कि जो अचरमशरीरी हैं; वे सिद्ध कैसे हो सकते हैं ? आचार्य जयसेन के चित्त में भी यह प्रश्न खड़ा हुआ होगा कि अचरमशरीरियों को सिद्धपना कैसे घटित हो सकता है। यही कारण है कि उन्होंने इसप्रकार की शंका उपस्थित कर उसका निम्नलिखितानुसार समाधान प्रस्तुत किया है - __ "उसी भव से मोक्ष नहीं जानेवाले अचरम शरीरियों के सिद्धपना कैसे संभव है? यदि कोई ऐसा प्रश्न करे तो उसका उत्तर आगम में इसप्रकार दिया गया है - तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य । णाणम्मि संदणम्मि य सिद्धे सिरसा णमंसामि ।। तप से सिद्ध, नय से सिद्ध, संयम से सिद्ध, चारित्र से सिद्ध, ज्ञान और दर्शन से सिद्ध हुए भगवन्तों को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ। इसप्रकार उक्त गाथा में कहे गये क्रम से एकदेश सिद्धता अचरमशरीरी जीवों के भी मानी गई है।" शेष बातें तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका के समान ही हैं। कविवर वृन्दावनदासजी ने इस गाथा का भाव १ मनहरण और २ दोहों - इसप्रकार ३ छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत किया है - (मनहरण) या प्रकार पूरवकथित शिवमारग में, सावधान होय जो विशुद्धता संभारी है। चरमशरीरी जिन तथा तीरथंकर, जिनिंददेव सिद्ध होय वरी शिवनारी है।। तथा एक दोय भवमाहिंजे मुकत जाहिं, ऐसे जे श्रमन शुद्ध भाव अधिकारी हैं। तिन्हैं तथा ताही शिवमारग को वृन्दावन, बार बार भली-भांति वंदना हमारी है।।१३१।। इसप्रकार पूर्वोक्त मुक्ति के मार्ग में सावधान होकर अपने विशुद्धभावों को संभारा है जिन्होंने – ऐसे चरमशरीरी सामान्य केवली और तीर्थंकर केवलियों ने शिवनारी का वरण किया है अर्थात् सिद्धदशा प्राप्त की है। इनके अतिरिक्त जो एक-दो भवों में मोक्ष जायेंगे - ऐसे अचरमशरीरी श्रमण भी शुद्धभावों के अधिकारी हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि उन सभी सिद्धों को और उक्त मुक्तिमार्ग को बारम्बार भलीभांति हमारी वंदना है। (दोहा) बहुत कथन कहलगुकरो, जोशुद्धातमतत्त । ताही में परवर्त करि, भये जुतदगत-रत्त ।।१३२।। ऐसे सिद्धनिकों तथा, आतम अनुभवरूप। शुद्ध मोक्षमग कोनमों, दरवितभावसरूप ।।१३३।। मैं अधिक कथन कहाँ तक करूँ; बात मात्र इतनी ही है कि जो जीव शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्ति करके उसी में लीन हो गये हैं - ऐसे सिद्धों को तथा आत्मानुभवरूप जो शुद्ध मोक्षमार्ग है, उसको द्रव्य-भाव नमस्कार करता हूँ।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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