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________________ प्रवचनसार गाथा १९४-१९५ 'ध्रुव होने से एक आत्मा ही उपलब्ध करने योग्य है; अन्य देहादि सभी संयोग अध्रुव होने से उपलब्ध करने योग्य नहीं है' - विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह समझाते हैं कि शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोहग्रन्थि का नाश होता है और मोहग्रन्थि के नाश से अक्षय अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं । । १९४ ।। जो हिदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि । । १९५ । । ( हरिगीत ) यह जान जो शुद्धात्मा ध्यावें सदा परमातमा । दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा । । १९४।। मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में । समभाव हो वह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें । । १९५ । । ऐसा जानकर जो आत्मा विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है; वह चाहे साकार उपयोग (सविकल्प) में हो या अनाकार उपयोग (निर्विकल्प ) में हो; वह मोहदुर्ग्रन्थि का नाश अवश्य करता है। टूट गई है मोहग्रन्थि जिसकी, वह आत्मा राग-द्वेष का क्षय करके सुख-दुःख में समता भाव रखता हुआ श्रमणता में परिणमित होता है और अक्षय सुख प्राप्त करता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यथोक्त विधि से जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में गाथा - १९४-१९५ ४२९ प्रवृत्ति द्वारा शुद्धात्मतत्त्व प्राप्त होता है और उससे अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्र संचेतन लक्षण ध्यान होता है। फिर उस ध्यान के कारण साकार ( सविकल्प) उपयोगवाले की अथवा अनाकार (निर्विकल्प) उपयोगवाले की दोनों की अविशेषरूप से एकाग्र संचेतन की प्रसिद्धि होने से अनादि संस्कार से बंधी हुई अतिदृढ मोह की दुष्ट गाँठ का भेदन हो जाता है। इसप्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल मोह ग्रन्थि का भेदन - टूटना है। - मोह ग्रन्थि है मूल जिनका - ऐसे राग-द्वेष का क्षय भी इस मोह ग्रन्थि के क्षय से होता है। राग-द्वेष के क्षय से परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है - ऐसी सुख - दुःख में समानबुद्धिरूप श्रमणता ( मुनिपना) प्रगट होती है और उससे अनाकुलता लक्षण अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। इसप्रकार मोहग्रन्थि के भेदन से अक्षयसुखरूप फल की प्राप्ति होती है। " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करने में तत्त्वप्रदीपिका टीका का अनुकरण करते भी साकारहुए अनाकार उपयोग के साथ-साथ सागार का अर्थ श्रावक और अणगार का श्रमण भी करते हैं। तात्पर्य यह है कि श्रावक और श्रमण - दोनों की मोह ग्रन्थि का भेद इसी विधि से होता है । यहाँ एक प्रश्न संभव है कि श्रावकों और श्रमणों के दर्शनमोहरूपी गाँठ है ही कहाँ ? जबतक दर्शनमोह की मिथ्यात्व नामक प्रकृति का क्षय (जड़मूल से नाश - सत्ता से नाश) नहीं होता, तबतक एकप्रकार से मोहग्रन्थि विद्यमान ही है। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं का भाव एक-एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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