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________________ प्रवचनसार अनुशीलन आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को सोने के उदाहरण से तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा का भाव प्रवचनसार परमागम में २ मनहरण कवित्त और २ दोहा - इसप्रकार ४ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। गाथा और टीका का सम्पूर्ण भाव उक्त छन्दों में समाहित हो गया है; जो मूलत: पठनीय है; तथापि नमूने के तौर पर दोनों दोहे प्रस्तुत हैं - (दोहा) ३४ दरव स्वगुनपरजायकरि, उतपत-वय- ध्रुव - जुत्त । रहत अनाहतरूप नित, यही स्वरूपास्तित्त ।। पर दरवनि के गुन परज, तिनसों मिलतौ नाहिं । निज स्वभावसत्ताविषै, प्रनमन सदा कराहिं ।। द्रव्य अपने गुण- पर्यायों के द्वारा उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और ध्रुवत्व से युक्त होकर सदा ही अनाहतरूप से रहता है। यही उसका स्वरूपास्तित्व है। प्रत्येक द्रव्य परद्रव्यों के गुण-पर्यायों से मिलता नहीं है; अपनी स्वरूपसत्ता में ही सदा परिणमन करता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - "छहों द्रव्यों में दो प्रकार का अस्तित्व है - १. स्वरूप अस्तित्व, २. सादृश्य अस्तित्व । आत्मा आदि सभी द्रव्य त्रिकाल अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अभेद हैं और पर से अत्यंत पृथक् हैं - इसका नाम स्वरूप अस्तित्व है। प्रत्येक द्रव्य में स्वभावरूप ऐसा स्वरूप अस्तित्व है, वह अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता; इसीलिए अनादि अनंत, अहेतुक, एकरूप अवस्था से सदा ही परिणमित होने से वह विभाव धर्म से पृथक लक्षणवाला है तथा उसमें अपूर्णता भी नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग - ३, पृष्ठ- ९७ २. वही, पृष्ठ ९७-९८ गाथा - ९६ ३५ द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से स्वर्ण के अस्तित्व द्वारा उसके सभी गुण-पर्यायों को पहिचाना जा सकता है और पीलापन आदि गुणों तथा कुण्डलादि पर्यायों द्वारा स्वर्ण का अस्तित्व है - ऐसा पहिचाना जाता है, किन्तु किसी सोनी आदि संयोग से वह नहीं पहिचाना जाता - ऐसा स्वर्ण का स्वभाव है।" एक समय की कुण्डलादि पर्याय सम्पूर्ण सोने को टिकाये रखती है - पीतादि गुणों और उसकी अवस्था न हो तो स्वर्ण ही न हो; इसलिए गुणपर्यायों का अस्तित्व वही द्रव्य का अस्तित्व है - ऐसा प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है। एक परमाणु की पर्याय के उत्पन्न होने अथवा बदलने का कारण कोई दूसरा परमाणु नहीं है तथा किसी की इच्छा - ज्ञानादि भी इसका कारण नहीं है। फूटने के समय यदि घड़ा नहीं फूटे और ठीकरे का उत्पाद न हो तो वस्तु का स्वरूप टिक (रह) नहीं सकता। मूलकारण को नहीं देखकर संयोग से देखनेवाले मूढजीव को असली वस्तुस्वरूप की सत्ता का सुनना भी अच्छा नहीं लगता। यह अरुचि उसके द्रव्य की पहिचान कराती है। ३" इसप्रकार इस गाथा में स्वरूपास्तित्व का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि स्वरूपास्तित्व प्रत्येक द्रव्य में अपना-अपना स्वतंत्र है । तात्पर्य यह है कि हम किसी महासत्ता के अंश नहीं हैं, अपितु हमारी सत्ता पूर्णतः हम में ही है। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देनेयोग्य है कि जिसप्रकार प्रत्येक द्रव्य की सत्ता पूर्णतः स्वतंत्र है; उसीप्रकार एक द्रव्य के अन्तर्गत होनेवाले गुणों की, प्रदेशों की और पर्यायों की सत्ता भिन्न-भिन्न नहीं है, अपितु एक ही है । तात्पर्य यह है द्रव्य, उसके गुण और उनकी पर्यायों में प्रदेशभेद नहीं हैं । ● १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ ९९ २. वही, पृष्ठ १०५ ३. वही, पृष्ठ १०७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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