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________________ ३९० प्रवचनसार अनुशीलन जीव यदि नरक-निगोद में जाये तो भी स्वयं के कारण और सिद्धदशा को प्राप्त हो तो भी स्वयं के कारण होता है, अन्य किसी कारण से नहीं। आत्मा समय-समय के परिणाम का स्वयं करता है। आत्मा स्वयं की समय-समय की योग्यतानुसार विकार अथवा अविकार परिणाम करता है, उसे यहाँ धर्म कहा है। यहाँ निर्मलपर्यायरूप धर्म की बात नहीं। प्रति समय भावरूप होना आत्मा का धर्म है; किन्तु उस भाव को जड़ धारण नहीं कर सकता। आत्मा में स्वयं प्रतिसमय विकार अथवा अविकाररूप परिणमन की शक्ति होने से वह भाव अवश्य ही आत्मा का कार्य है और उस भाव को आत्मा स्वतंत्रपने करता है, इसलिए वह कर्ता है। कर्ता की व्याख्या भी इसप्रकार है कि जो स्वतंत्रपने करे, वह कर्ता और कर्ता को जो इष्ट हो, वह कर्म । निमित्त से अथवा कर्म के उदय से कोई कार्य हुआ कहने से वस्तु का कर्तापना नहीं रहता; इसलिए द्रव्य कारण है और पर्याय उसका कार्य है। पर्याय विकारी हो अथवा अविकारी हो - उनका कर्ता आत्मद्रव्य स्वयं ही है। प्रत्येक पदार्थ कायम रहकर पूर्व पर्याय का व्यय करके नवीन पर्याय का उत्पाद करता है। यहाँ जो पूर्व पर्याय का व्यय हुआ - अभाव हुआ, वह वर्तमान पर्याय का क्या करे? यदि निमित्त से उत्पाद होता हो तो कोई स्वतंत्र नहीं रहेगा। वैसे ही यदि पूर्व पर्याय के कारण वर्तमान पर्याय हो तो उत्पाद स्वतंत्र नहीं रहेगा। __अहो ! वस्तुस्वरूप अलौकिक है। मात्र वर्तमान और त्रिकाली द्रव्य - इन दो के बीच ही संबंध है। कर्म के साथ, निमित्त के साथ अथवा पूर्व पर्याय के साथ वर्तमान का जरा भी संबंध नहीं। प्रत्येक समय की विकारी अथवा अविकारी पर्याय स्वतंत्र है। आत्मा रूपी पदार्थों के भावों को भी नहीं करता; क्योंकि आत्मा गाथा-१८४-१८५ ३९१ में रूपीपने होने की शक्ति नहीं है; इसलिए वह उन कार्यों का अकर्ता ही हैं, इसप्रकार आत्मा पर-पदार्थों के परिणाम का कर्ता नहीं और वे परपदार्थ भी आत्मा के द्वारा किये नहीं हैं; इसलिए वे आत्मा के कार्य नहीं हैं। जो जीव ऐसा सच्चा ज्ञान करता है, उसे पर-कर्तृत्व और ममत्व नष्ट होकर धर्म प्रगट होता है। ___ जो जिसको परिणमाने वाला देखने में आता है, वह उसके ग्रहणत्याग रहित देखने में नहीं आता और जो जिसके ग्रहण-त्याग रहित देखने में आता है, वह उसका परिणमाने वाला नहीं हो सकता। जैसे आत्मा शरीर, कुटुंब, लक्ष्मी के ग्रहण-त्याग से रहित होने से उनको परिणमा नहीं सकता; वैसे ही उनका ग्रहण-त्याग भी नहीं कर सकता। यदि आत्मा लक्ष्मी को परिणमा सकता हो तो वह लक्ष्मी के ग्रहणत्याग रहित कभी नहीं हो सकता । मृत्यु के समय शरीर, कुटुंब, लक्ष्मी यहीं पड़े रहते हैं और जीव चला जाता है। इससे ख्याल में आता है कि आत्मा ने परवस्तु का ग्रहण-त्याग किया ही नहीं। जब किसी वस्तु का ग्रहण-त्याग ही नहीं किया तो उस वस्तु को आत्मा कैसे परिणमा सकता है? इसप्रकार सिद्ध हुआ कि आत्मा शरीर, लक्ष्मी, कुटुंब इत्यादि पर पदार्थों को परिणमा नहीं सकता।' इतना विशेष जानना कि आत्मा स्वयं के परिणाम का कर्ता होने से वह उस परिणाम के ग्रहण-त्याग रहित देखने में नहीं आता। आत्मा स्वयं की पर्याय में शुभाशुभ भाव को ग्रहण करता है; किन्तु उसका भी त्याग करके शुद्धभाव को ग्रहण करता है, वह भी पर्यायदृष्टि से है। वस्तुस्वभाव में तो शुभाशुभ भाव का भी ग्रहण-त्याग नहीं। पर्यायदृष्टि से आत्मा प्रतिसमय स्वयं के परिणाम का कर्ता है; इसकारण वह स्वयं के परिणाम को प्रतिसमय ग्रहण करता है और छोड़ता है। इसप्रकार परिणामी आत्मा स्व परिणाम को ग्रहण करता है और छोड़ता है; किन्तु वह पर-वस्तु का न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३५४ २. वही, पृष्ठ-३५७ १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३५२ ३. वही, पृष्ठ-३५२ २. वही, पृष्ठ-३५२ ४. वही, पृष्ठ-३५३
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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