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________________ ३७४ प्रवचनसार अनुशीलन परिनाम जो सुराग दोष मोह भाव लिये जामैं मोह भाव दोष भाव निंदनीक है।। देव अरिहंत और गुरु निरगंथ की सु भक्ति माहिं लीन सुभराग की सुलीक है। विषय-कषायरूप असुभोपयोग भाव भैया दोउ बंध के करैया तहकीक है ।।१४२ ।। जीव के अशुद्धोपयोग परिणामों से पौद्गलिक वर्गणारूप द्रव्यकर्म का बंध होता है, सो ठीक ही है। जीव में मोह-राग-द्वेष भावों को लिये जो परिणाम होते हैं, वे सब अशुद्धोपयोग हैं, उनमें विशेषकर मोहभाव और द्वेषभाव निंदनीय माने गये हैं; क्योंकि वे मुख्यतया अशुभभावरूप ही होते हैं। अरिहंत देव और निर्ग्रन्थ गुरु की भक्ति में लीन जीव के शुभरागरूप परिणाम शुभोपयोग कहलाते हैं। जीव के विषयकषाय संबंधी परिणाम चाहे कैसे भी हों, अशुभोपयोग ही कहे जाते हैं। शुभोपयोग और अशुभोपयोग रूप दोनों ही परिणाम बंध के करानेवाले हैं - यह परम सत्य बात है। (सवैया इकतीसा) पंच परमेष्ठी की सु भक्ति आदि परिनाम जो प्रसस्त रागरूपजाको नाम पुन्न है। जो सरीर इंद्रियादि परद्रव्य सौं ममत्व विर्षे अनुराग मई पाप सौं जवुन्न है ।। अन्य द्रव्य की प्रवर्त्ति विना वीतराग भाव आतमीक दूसरो न और छुन्न मुन्न है। सुद्ध उपयोग वंत मुकति स्वरूप संत जाकैंपराधीन सुख-दुःख कौसुसुन्न है।।१४३।। अरिहंतादिक पंच परमेष्ठियों की सद्भक्ति आदि के प्रशस्त रागरूप परिणामों का नाम पुण्य है तथा शरीर, इन्द्रिय आदि परद्रव्यों से ममत्व एवं विशेषानुरागरूप परिणति पाप है। अन्य द्रव्यों या तद्विषयक विकल्पों में प्रवृत्ति हुए बिना जो पाप-पुण्य से रहित आत्मीक वीतराग भाव होता है, गाथा-१८०-१८१ उसे शुद्धोपयोग कहते हैं। ऐसे शुद्धोपयोग से युक्त शुद्धोपयोगी संत मुक्तिस्वरूप हैं; उनके पराधीन सुख-दुःख नहीं होते । मतलब यह है कि शुद्धोपयोगी संत पुण्य-पाप के उदय में होनेवाले इन्द्रियविषयक सुखदुःख से शून्य ही होते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "परवस्तु बंध का कारण नहीं । सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती के पास वस्तुओं के ढेर हैं, यदि वस्तुओं से बंधन होता हो तो उसको बंधन बहुत होना चाहिए और मिथ्यादृष्टि त्यागी को अल्प वस्तु का परिग्रह है तो उसको बंधन अल्प होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता। परवस्तु तो मरण होने पर वहीं छूट जाती है; किन्तु बंधन नहीं छूटता; इसलिए परवस्तु बंधन का कारण नहीं; ममताभाव बंधन का कारण है। मिथ्यादृष्टि जीव को संसार के कारणरूप बंधन है और समकिती को अल्पबंधन है और वह भी छूट जानेवाला है। मिथ्यात्व तो अशुभ में गिना है। राग दो प्रकार का है, एक शुभराग और दूसरा अशुभराग। विशुद्धिवाला होने से धर्मानुरागमय परिणाम शुभ हैं। संक्लेशवाला होने से विषयानुरागमय परिणाम अशुभ हैं। ___आत्मा का शुद्ध चिदानन्द स्वभाव अखण्डता से भरपूर है। जो पारिणामिक भाव अनादि-अनंत एकरूप है, उसमें पर्याय पूरी तरह एकाग्र होती है - अभेद होती है, तब केवलज्ञान और मोक्षदशा प्रगट होती है; इसलिए मोक्ष का कारण शुद्धस्वभाव एक ही है। ___इसप्रकार मिथ्यादृष्टि यदि शुभभाव भी करता हो तो भी मिथ्यात्व के कारण बड़ा अशुभ और अनंत संसार के बंध का कारण उसे है। इसलिए जिसे पाप टालना हो, उसे पर के ऊपर से दृष्टि हटाकर, पुण्यपाप की रुचि छोड़कर, अबंध स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान करना चाहिये। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३३३ २. वही, पृष्ठ-३३४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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