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________________ ३६८ प्रवचनसार अनुशीलन शरीर की क्रिया से तथा दया-दान के भाव से मझे लाभ होगाऐसा भाव तो राग-परिणत भाव है। निमित्त तथा संयोग की दृष्टि छोड़कर पुण्य-पाप मेरा स्वभाव नहीं, मैं तो ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ- ऐसे भानपूर्वक ज्ञायकस्वभाव की श्रद्धावाला जीव वैराग्य परिणत है।' निमित्त, पुण्य तथा गुणभेद की रुचि छोड़कर, स्वयं ऐश्वर्यवान अभेद शुद्धस्वभाव को जो भजता है, वह जीव वैराग्य परिणत है और उसे कर्मबन्ध नहीं होता। इसप्रकार सच्ची दृष्टि करना, धर्म का कारण है। पर-पदार्थों का आत्मा में अभाव है और वे आत्मा को लाभ तथा नुकसान में कारण नहीं हैं। पुण्य-पाप उपाधिभाव है, उससे रहित आत्मा शुद्ध चिदानन्द स्वरूप है - ऐसी श्रद्धा-ज्ञान करके स्वभाव का दृष्टि में आदर करना दृष्टि का वैराग्य है। शुभाशुभ भाव मेरे स्वरूप नहीं, मैं तो शुद्ध चिदानन्द स्वरूप हूँ - ऐसा प्रथम दृष्टि का वैराग्य तो हुआ है और साथ में चिदानन्द स्वभाव में विशेष स्थिरता रूप चारित्र और उपशांत निर्विकल्प रमणता प्रगट करना चारित्र का वैराग्य है। दृष्टिवंत वैराग्यवाले जीव को मुख्यपने बंध नहीं होता, अस्थिरता के कारण बंध होता है, वह अल्प है। उसे बंध होता ही नहीं - ऐसा दष्टि अपेक्षा से कहने में आता है और चारित्र वैराग्यवाला जीव तो स्वयं के स्वभाव में लीन है; इसलिए उसे बंध नहीं होता। ___पुराने कर्म तो प्रतिसमय स्वकाल पाकर खिर जाते हैं; फिर भी पुराने द्रव्यकर्म से बंधता है - ऐसा कैसे कहा? स्वयं की पर्यायबुद्धि चालू रखी है। बंधन की योग्यता है, बन्धनभाव चालू है, उससे पुराने कर्म खिरने पर भी नये बंधते हैं; इसलिए पुराने कर्म से बंधता है - ऐसा गाथा-१७९ ३६९ नवीन कर्म न बंधे तो पुराने छूटे कहे जायें। इसलिए अज्ञानी जीव पुराने अथवा नवीन किसी एक कर्म से भी नहीं छूटता, बंधता ही है। ज्ञानी जीव पुराने कर्मों से छूट जाता है। स्वभावदृष्टि में स्थिर होने पर नवीन कर्म उत्पन्न ही नहीं होते। और पुराने द्रव्यकर्म प्रतिसमय उदय में आकर खिर जाते हैं और नवीन बंध नहीं होता इसकारण पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त ही है - ऐसा कहा है। यहाँ अस्थिरता के अल्पबंध की बात गौण है, मुख्यपने ज्ञानी को बंध नहीं होता - यह अपेक्षाकृत कथन है। विशेष स्थिरता करने पर ज्ञानी को अस्थिरता का अल्पबंध भी नहीं होता। वह पुराने कर्म से नहीं बंधता और पुराने कर्म से मुक्त ही रहता है। ___इसलिए द्रव्यबंध के निमित्त भावबन्ध अर्थात् मिथ्यात्व रागद्वेष ही निश्चय से बंध है। ऐसा स्वतंत्र पर्याय का ज्ञान करके कर्म के ऊपर से लक्ष्य उठाकर भावबंध भी मेरा त्रिकालस्वरूप नहीं । मैं तो स्वयं त्रिकाली शुद्ध हूँ - ऐसी सच्ची श्रद्धा-ज्ञान करना ही धर्म है।" ___बंध और मोक्ष के कारणों को अत्यन्त संक्षेप में साररूप में प्रस्तुत करनेवाली इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की गई है कि मूल बात यह है कि निश्चय से रागी जीव कर्म बांधता है और रागरहित आत्मा कर्मबंधनों से मुक्त होता है। __ यहाँ रागी जीव से मात्र रागभाव से परिणत जीव ही नहीं लेना, अपितु राग में धर्म मानने रूप मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम - इन तीनों से संयुक्त जीव लेना। ___ तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी और असंयमी जीव कर्म बाँधता है। इसीप्रकार राग रहित का अर्थ भी सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी और संयमी जीव समझना चाहिए। निष्कर्ष के रूप में यह समझना कि रत्नत्रय से रहित १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३३० २. वही, पृष्ठ-३३१ ३. वही, पृष्ठ-३३१ १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३२७ २. वही, पृष्ठ-३२८ ४. वही, पृष्ठ-३२९ ३. वही, पृष्ठ-३२९ ५. वही, पृष्ठ-३३०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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