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________________ ३१६ प्रवचनसार अनुशीलन अथवा आनमती बह बकैं। दोषसहित लच्छन अन तकैं। ताहूकरि न लखिय तसु चिह्न । याहू सु अलिंगग्गहन ।।६३।। इत्यादिक बहु अरथविधान । शब्द अलिंगगहन को जान । सो विशाल टीकातै देखि । पंडित मन में दियौ विशेखि ।।६४।। यह चेतन चिद्रूप अनूप । शुद्ध सुभाव सुधारसकूप । स्वसंवेदनहिकरि सो गम्य । लखहिं अनुभवी समरसरम्य ।।५।। शब्दब्रह्म को पाय सहाय । करि उद्दिम मन-वचन-काय । काललब्धि को लहि संजोग । पावै निकटभव्य ही लोग ।।६६।। तातें गुन अनंत को धाम । वचन अगोचर आतमराम । वृन्दावन उर नयन उघारि । देखो ज्ञानज्योति अविकारि ।।६७।। रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि पुद्गल के जितने भी चिन्ह हैं; उन सभी से आत्मा की पहिचान नहीं होती; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। अथवा जगत में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग - ये लिंग प्रसिद्ध हैं; इनसे भी आत्मा की पहिचान नहीं होती; इसलिए भी आत्मा अलिंगग्रहण है। अथवा पाँच इन्द्रियाँ ही लिंग हैं, चिन्ह हैं; उनसे भी आत्मा की पहिचान रंचमात्र नहीं होती; क्योंकि वह तो अतीन्द्रियज्ञान से जाननेवाला या जानने में आनेवाला तत्त्व है; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। अथवा इन्द्रियजनितज्ञान से प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण, वह भी आत्मा का चिन्ह नहीं है; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। अथवा लिंग नामक जो युक्ति है, वह प्रगट है; इसप्रकार लक्षण प्रगट है, पर लक्ष्य गुप्त है । जिसप्रकार धूम से अग्नि जान ली जाती है; उसीप्रकार आत्मा लिंग नामक चिन्ह से नहीं जाना जाता; अत: अलिंगग्रहण है। अथवा अन्यमती बहुतप्रकार की बातें करते हैं, वे जो भी लक्षण बताते हैं; वे सभी सदोष हैं। उनसे भी आत्मा जानने में नहीं आता; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। अलिंगग्रहण शब्द के अनेकप्रकार के बहुत से अर्थ होते हैं। उन्हें गाथा-१७२ ३१७ आचार्य अमृतचन्द्रकृत विशाल टीका तत्त्वप्रदीपिका से जानना चाहिए। उसे जानकर पंडितजनों को विशेष हर्ष होगा। यह चेतन आत्मा अनुपम है, अमृतरस का कुआँ है, शुद्धस्वभावी है, स्वसंवेदन ज्ञान से ही गम्य है, स्वसंवेदनज्ञान से ही जाना जाता है। रमणीय समतारस से संपन्न उक्त आत्मा को अनुभवी आत्मा ही देखते हैं, जानते हैं। काललब्धि के संयोग होने पर, शब्दब्रह्म के सहयोग से, मन-वचनकायपूर्वक पुरुषार्थ करने पर निकट भव्यजीव ही उक्त आत्मा की प्राप्ति करते हैं। इसलिए वृन्दावन कवि कहते हैं - वचन-अगोचर अनन्त गुणों के धाम आतमराम को हमने हृदयरूपी नयनों को उघाड़कर अविकारी ज्ञानज्योति को देखा है। पण्डित देवीदासजी प्रवचनसारभाषाकवित्त में इस महत्त्वपूर्ण गाथा को मात्र एक छन्द में ही समेट लेते हैं। इसका कारण यह है कि वे आचार्य अमृतचन्द्र और आचार्य जयसेन कृत टीकाओं को आधार न बनाकर मूल ग्रन्थ के आधार पर ही अपने प्रवचनसारभाषाकवित्त को प्रस्तुत कर रहे हैं। उनका उक्त छन्द इसप्रकार है (सवैया इकतीसा) जाकै पंच रस नांही पंच ही वरन नाहीं दुविध प्रकार जाकै गंध सो न आनियै । आठ ही सपर्स गुन नाहीं सो स्वरूप गुप्त ग्यान और दर्शन मई सु पहिचानियै ।। सब्द पर्जाय नय सुभाव जाकौ निश्चैकरि पुग्गलीक चिन्ह करि ग्राहजन मानिये । सवइ संस्थानि विना निराकार सुद्ध रूप भैया भव्य अँसोजीव द्रव्य ताहि जानिये ।।१३३।। जिसके स्वभाव में पाँच रस नहीं हैं, पाँच वर्ण नहीं हैं; दो प्रकार की
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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