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________________ प्रवचनसार अनुशीलन अपनी क्रिया मानते हैं, उसे ही धर्मरूप स्वीकार करते हैं; अनेक कमरों में घूमनेवाले रत्नदीपक की भाँति आत्मा को एकमात्र चेतनाविलासरूप स्वीकार करनेवाले वे ज्ञानी धर्मात्मा स्वसमय हैं। जिसप्रकार भिन्न-भिन्न कमरों में ले जाया गया रत्नदीपक रत्नदीपकरूप ही रहता है, कमरों को प्रकाशित करने के कारण कमरोंरूप नहीं हो जाता और न कमरों की क्रिया को करता है; उसीप्रकार भिन्नभिन्न शरीरों में रहनेवाला आत्मा आत्मारूप ही रहता है, वह किंचित्मात्र भी शरीररूप नहीं होता और न शरीर की क्रिया करता है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि देह और आत्मा की एकरूप मनुष्यादि पर्यायों में अपनापन रखना अर्थात् अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रखना परसमयपना है और एकमात्र आत्मा में अपनापन रखना अर्थात् अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबाहरखनास्थसमयदीन अंश है, जिसे अध्यात्म भी कहते हैं। अध्यात्म में रंग, राग और भेद से भी भिन्न परमशुद्धनिश्चयनय व दृष्टि के विषयभूत एवं ध्यान के ध्येयरूप, परमपारिणामिकभावस्वरूप त्रैकालिक व अभेदस्वरूप निजशुद्धात्मा को ही जीव कहा जाता है । इसके अतिरिक्त सभी भावों को अनात्मा, अजीव, पुद्गल आदि नामों से कह दिया जाता है। इसका एकमात्र प्रयोजन दृष्टि को पर, पर्याय व भेद से भी हटाकर निज शुद्धात्मतत्त्व पर लाना है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और पूर्णता निजशुद्धात्मतत्त्व के आश्रय से ही होती है। अध्यात्मरूप परमागम का समस्त कथन इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर होता है। - परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ प्रवचनसार गाथा-९५ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा से ही आरंभ हुआ है। इसमें यह कहा गया है कि पर्यायमूढ जीव परसमय हैं; इसकारण आरंभ में ही पर्यायों की चर्चा विस्तार से की गई है। इसी संदर्भ में पर्याय के द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय भेद भी किये गये और यह कहा गया असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्व ही मुख्यतः परसमयपना है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि द्रव्य क्या है, जिसकी पर्यायों में अपनापन परसमयपना, मिथ्यात्व है। इस शंका के समाधान के लिए आगामी गाथा में द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है अपरिच्चत्तसहावेणुप्पाद-व्यय-ध्रुवत्तसंबंद्धं । गुणवं च सपजायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ।।१५।। (हरिगीत) निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुण पर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें।।९५।। जो स्वभाव (सत्ता) को छोड़े बिना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य - इन तीन से तथा गुण और पर्याय - इन दो से सहित है; उसे द्रव्य कहते हैं। महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तीन सूत्र लिखे हैं; जो इसप्रकार हैं"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । सद्रव्यलक्षणं । गुणपर्ययवद् द्रव्यं ।" इनका अर्थ यह है कि सत् अर्थात् सत्ता द्रव्य का लक्षण है और वह सत्ता उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्य से युक्त होती है तथा सत् द्रव्य गुण और पर्यायवाला होता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र और जिन १२
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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