SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-१६३-१६५ २८६ प्रवचनसार अनुशीलन "जिसप्रकार शद्ध-बद्ध स्वभाव द्वारा यह आत्मा बन्ध रहित होने पर भी, पश्चात् अशुद्धनय से स्निग्ध के स्थानीय रागभाव तथा रूक्ष के स्थानीय द्वेषभावरूप से जब परिणमित होता है; तब परमागम में कही गयी विधि से बन्ध का अनुभव करता है। उसीप्रकार परमाणु भी स्वभाव से बन्ध रहित होने पर भी, जब बन्ध के कारणभूत स्निग्ध-रूक्ष गुणरूप से परिणमित होता है; तब दूसरे पुद्गल के साथ विभाव पर्यायरूप बन्ध का अनुभव करता है। ___बकरी के दूध में, गाय के दूध में, भैंस के दूध में चिकनाई की वृद्धि के समान, जिसप्रकार जीव में बन्ध के कारणभूत स्निग्ध के स्थानीयरागपना तथा रूक्ष के स्थानीय-द्वेषपना, जघन्य विशुद्धि-संक्लेश स्थान से प्रारम्भ कर परमागम में कहे गये क्रम से उत्कृष्ट विशुद्धि-संक्लेश पर्यन्त बढ़ते हैं; उसीप्रकार पुद्गल परमाणु द्रव्य में भी, बन्ध के कारणभूत स्निग्धता और रूक्षता पहले कहे गये जलादि की तारतम्य (क्रम से बढ़ती हुई) शक्ति के उदाहरण से एक गुण नामक जघन्य शक्ति से प्रारम्भ कर गुण नामक अविभागी प्रतिच्छेदरूप दूसरे आदि शक्ति विशेष से अनंत संख्या तक बढ़ते हैं; क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणामी होने के कारण परिणाम का निषेध किया जाना शक्य नहीं है। विशेष यह है कि - परम चैतन्य परिणति लक्षण परमात्मतत्त्व की भावनारूप धर्मध्यान, शुक्लध्यान के बल से, जिसप्रकार जघन्य स्निग्ध शक्ति के स्थानीय राग के क्षीण होने पर और जघन्य रूक्ष शक्ति के स्थानीय द्वेष के क्षीण होने पर, जल और रेत के समान जीव का बन्ध नहीं होता है; उसीप्रकार पुद्गल परमाणु के भी जघन्य स्निग्ध और रूक्ष शक्ति का प्रसंग होने पर बन्ध नहीं होता है - ऐसा अभिप्राय है।" यहाँ पर जानने की विशेष बात यह है कि यहाँ पर आत्मा के बंध का उदाहरण देकर पुद्गल के बंध को समझाया गया है। ___ कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को ३ मनहरण और ८ दोहे - कुल मिलाकर ११ छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण कवित्त) अप्रदेशी अनू परदेशपरमान दर्व, सो तो स्वयमेव शब्द परज रहत है। तामैं चिकनाई वा रुखाई परिनाम बसै, सोई बंध जोग भाव तास में कहत है।। ताहीसेती दोय आदि अनेक प्रदेशनिकी, दशा को बढ़ावत सुपावत महत है। ऐसे पुद्गल को सुपिंडरूप खंध बँधै, यासों चिदानंदकंद जुदोई लहत है ।।३४।। एक प्रदेशप्रमाण अप्रदेशी अणु स्वयमेव शब्द पर्याय से रहित है। उसमें जो चिकनाई और रूक्षता है; वही स्कंधरूप बंध का कारण है। उसी के कारण दो आदि प्रदेशों (परमाणुओं) का बंध होता है। इसप्रकार स्कंधरूप पुद्गल का पिंड बनता है; पर भगवान आत्मा इनसे जुदा ही है। (दोहा) अविभागी परमानु वह, शुद्ध दरव हैं सोय । वरनादिक गुन पंच तो, सदा धरैं ही होय ।।३५।। एक वरन इक गंध इक, रस दो फास मँझार । अंतर भेदनि में धरे, श्रुति लखि लेहु विचार ।।३६।। शुद्ध पुद्गलद्रव्य तो अविभागी परमाणु है। वह पाँच वर्णादि गुणों को सदा ही धारण किये रहता है। वह एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श धारण किये रहता हैइसके भेदों के संदर्भ में शास्त्रों में देखना चाहिए। (मनहरण कवित्त) पुग्गल अनू में चिकनाई वारुखाई भाव, एक अंश तें लगाय भाषे भेदरास है। एकै एक बढ़त अनंत लौं विभेद बढ़े, जारौं परिनाम की शकति ताके पास है ।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy