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________________ २८० प्रवचनसार अनुशीलन और उसके संयोग में रहनेवाले मन-वचन-काय का स्वरूपास्तित्व पूर्णतः भिन्न-भिन्न है। वे न तो एक-दूसरे के रूप हैं, न एक-दूसरे के स्वामी हैं। इसीप्रकार वे एक-दूसरे के परस्पर कर्ता नहीं हैं, कारण नहीं हैं, कारयिता नहीं हैं और अनुमन्ता भी नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि इनमें परस्पर एकक्षेत्रावगाह संबंध के अतिरिक्त कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए ज्ञानी धर्मात्मा जीव इनके प्रति पूर्णतः मध्यस्थ रहते हैं, शरीरादि में कुछ करने के बोझ से पूर्णत: मुक्त रहते हैं। यदि कमजोरी के कारण तत्संबंधी कोई विकल्प खड़ा हो जाता है तो उसे भी जान लेते हैं, सहजभाव से ज्ञान का ज्ञेय बना लेते हैं; उसके कारण आकुलव्याकुल नहीं होते। 'अकेले ही मरना होगा, अकेले ही पैदा होना होगा, सुख-दुःख भी अकेले ही भोगना होगा' - इसप्रकार के चिन्तन से यदि खेद उत्पन्न होता है तो हमें अपनी चिंतन प्रक्रिया पर गहराई से विचार करना चाहिए। यदि हमारी चिन्तन-प्रक्रिया की दिशा सही हो तो आह्लाद आना ही चाहिए। जरा गहराई से विचार करें तो सबकुछ सहज ही स्पष्ट हो जावेगा। ___ आपको यह शिकायत हो कि सुख-दुःख, जीवन-मरण सबकुछ आपको अकेले ही भोगने पड़ते हैं; कोई सगा-संबंधी भी साथ नहीं देता। क्या आपकी यह शिकायत उचित है? । ___ जरा इस पर गौर कीजिए कि कोई साथ नहीं देता है या दे नहीं सकता ? वस्तुस्वरूप के अनुसार जब कोई साथ दे ही नहीं सकता, तब साथ नहीं देता' - यह प्रश्न ही कहाँ रह जाता है ? जब हम ऐसा सोचते हैं कि कोई साथ नहीं देता तो हमें द्वेष उत्पन्न होता है; पर यदि यह सोचें कि कोई साथ दे नहीं सकता तो सहज ही उदासीनता उत्पन्न होगी, वीतरागभाव जागृत होगा। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-६७ प्रवचनसार गाथा १६२ विगत गाथा में मन-वचन-काय का परद्रव्यत्व बताकर अब इस गाथा में उक्त मन-वचन-काय के कर्तृत्व का निषेध करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है णाहं पोग्गलमइओण ते मया पोग्गला कया पिंडं । तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ।।१६२।। (हरिगीत) मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें। मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ।।१६२।। मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और वे पुद्गल मेरे द्वारा पिण्डरूप नहीं किये गये हैं; इसलिए मैं देह नहीं हूँ तथा उस देह का कर्ता भी नहीं हूँ। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसका प्रकरण चल रहा है - ऐसा यह शरीर पुद्गलद्रव्यात्मक परद्रव्य है; इसके भीतर वाणी और मन का भी समावेश हो जाता है। इसप्रकार मन-वचन-काय के पिण्डरूप शरीर मैं नहीं हैं; क्योंकि मैं अपुद्गलमय हूँ; इसलिए मेरा पुद्गलमय शरीर होने में विरोध है। - इसीप्रकार शरीर के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कारयिता द्वारा और अनुमोदक द्वारा भी मैं शरीर का कर्ता नहीं हूँ; क्योंकि अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्डरूप परिणाम का अकर्ता मैं अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्डरूप पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का मेरे कर्तारूप होने में सर्वथा विरोध है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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