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________________ २६५ २६४ प्रवचनसार अनुशीलन ___ परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्धोपयोग है। वह अशुद्धोपयोग विशुद्धि और संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप द्विविधता को प्राप्त होता हुआ पुण्य-पाप के बंध का कारण होता है। ___पुण्य से अनुकूल और पाप से प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते हैं। जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोगों का अभाव हो जाता है, तब उपयोग शुद्ध ही रहता है और वह शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का अर्थ सामान्यसा ही कर देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इन दो गाथाओं का भाव एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण कवित्त ) जब इस आतमा के पूजा दान शील तप, संजम क्रियादिरूप शुभ उपयोग है। तब शुभ आयुनाम गोत पुन्यवर्गना को, कर्मपिंड बँधै यह सहज नियोग है।। अथवा मिथ्यात विर्षे अव्रत कषायरूप, ___ अशुभोपयोग भये पाप को संजोग है। दोऊ के अभाव नै विशुद्ध उपयोग वृन्द, तहां बंध खंड के अखंड सुख भोग है ।।२२।। जब इस जीव के पूजा, दान, शील, तप और संयमादि क्रियारूप शुभोपयोग होता है; तब उसे शुभ आयु, शुभ नाम, ऊँच गोत्र और साता वेदनीय पुण्य वर्गणाओं के कर्मपिंड बँधते हैं - यह सहज नियोग है। अथवा मिथ्यात्व दशा में अव्रत और कषायरूप अशुभोपयोग के होने से पाप का संयोग होता है। शुभ और अशुभ - दोनों के अभाव से उपयोग शुद्ध होता है। वहाँ बंध का अभाव होकर अखण्डसुख की प्राप्ति होती है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को १ अडिल्ल और १ गाथा-१५५-१५६ सवैया इकतीसा में प्रस्तुत करते हैं, जिनमें इकतीसा सवैया इसप्रकार है - (सवैया इकतीसा) दान पूजा वरत विधान आदि क्रिया सुभ चेतना विकार सो असुद्ध परिणाम है। जाको फल पुन्य साता कौ करनहार तन पिंड जीव एक ठौर बंध धाम है।। मिथ्या भाव विषय कषाय आदि तैंसहीसु असुभोपयोग सौं आतमा कौ धमाम है। सुभासुभ भाव ग8 सुद्ध उपयोग भडै वीतराग सुद्ध' एक आतमाही राम है।।११।। दान, पूजा, व्रत-विधान आदि शुभक्रिया चेतना का विकार है, इसलिए अशुद्ध परिणाम है और उसका फल पुण्यबंध है, जो लौकिक सुख-साता करनेवाला है तथा शरीर और जीव का एक स्थान पर आवास है। मिथ्याभावों से विषय-कषाय आदि में प्रवृत्तिरूप अशुभोपयोग असाता का कारण है। शुभाशुभभावों के चले जाने पर और शुद्धोपयोग होने पर आत्माराम एकमात्र वीतराग शुद्धभावरूप ही है। इन गाथाओं का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "उपयोग तो आत्मा का स्वभाव है, चैतन्य का अनुसरण करनेवाला परिणाम है। यह परिणाम शरीर, इन्द्रिय व मन का अनुसरण नहीं करता; अपितु चैतन्य का अनुसरण करता है - ऐसा कहा है। यह बात लक्ष्य में लेनेयोग्य है। उपयोग दो प्रकार का है - ज्ञान उपयोग - साकारपने का नाम ज्ञानोपयोग है। आकार सहित का यह अर्थ नहीं कि जड़ का आकार ज्ञान में आता है; किन्तु यह है कि ज्ञान भेद-प्रभेद सहित प्रत्येक वस्तु को जुदा-जुदा जानता है। दर्शन उपयोग - निराकारपने का नाम दर्शनोपयोग है। यह जीव है कि अजीव है अथवा यह द्रव्य है - ऐसा कोई भेद किये बिना सामान्य अवलोकनरूप उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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