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________________ २४० प्रवचनसार अनुशीलन "आकाश से लेकर काल तक सभी पदार्थ सप्रदेशी हैं और सभी के समुदायरूप लोक के भीतर होने पर भी स्व-पर को जानने की अचिन्त्य शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा एकमात्र जीव ही जानते हैं; अन्य कोई द्रव्य जानते नहीं हैं। इसप्रकार जीवों को छोड़कर शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं। जीवद्रव्य ज्ञेय भी हैं और ज्ञान भी हैं। इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है। स्वभाव से ही प्रगट अनंत ज्ञानशक्ति जिनका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायिपना जिसका लक्षण है - ऐसे जीवों के वस्तु का सहज स्वभाव होने से सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी; संसारावस्था में अनादि प्रकटरूप से वर्तमान पुद्गल के संश्लेष द्वारा स्वयं दूषित होने से चार प्राणों का संयोग होने से व्यवहारजीवत्व है और वह विभक्त करने योग्य है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुकरण करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को दो छन्दों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (मनहरण कवित्त) सहित प्रदेश सर्व दर्व जामें पूरि रहे, ऐसो जो आकाश सो तो अनादि अनंत है। नित्त नूतन निराबाध अकृत अमिट, अनरच्छित सुभाव सिद्धसर्वगतिवंत है।। तिस षटदर्वजुत लोक को जो जानत है, सोई जीव दर्व जानो चेतनामहंत है। वही चार प्रानजुत जगत में राजै वृन्द, अनादि संबंध पुद्गल को धरंत है।।२।। अनादि-अनंत आकाश द्रव्य में अपने-अपने प्रदेशों सहित सभी द्रव्य समा रहे हैं। वे सभी द्रव्य नित्य होकर भी नवीन हैं; निराबाध गाथा-१४५ २४१ हैं, अकृत हैं, अमिट हैं, अनरक्षित हैं, स्वभाव से सिद्ध हैं और परिणमनशील हैं। इसप्रकार षद्रव्यों के समूहरूप लोक को जो जानता है, वह चेतना से युक्त जीवद्रव्य है। वह जीवद्रव्य अनादि से ही पुद्गल से संबंधित होने से चार प्राणों से संयुक्त होकर शोभायमान हो रहा है। (दोहा) पंच दरव सब ज्ञेय हैं, ज्ञाता आतमराम । सो अनादि चहु प्रान जुत, जग में कियो मुकाम ।।३।। जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य तो ज्ञेय हैं और आत्मा ज्ञाता है। ऐसा यह ज्ञाता जीव अनादि से ही चार प्राणों से युक्त होकर संसार में भटक रहा है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं (कवित्त) लै नभ दरव काल ताईं सब नहीं निज प्रदेशनि सौं दूर । तीनि लोक महि आदि अंत विनु भरे सघन करिक भरिपूर ।। जो तिन्हि षट पदारथनि को है ग्याइक जीव सहित निज नूर। चारि प्रान इंद्री बल आयु स्वासु आप तसु रहै हजूर ।।९७।। अनन्तप्रदेशी आकाश से लेकर एकप्रदेशी काल तक सभी पदार्थ अपने प्रदेशों में रहते हैं, कभी भी उनसे दूर नहीं होते। तीन लोक में अनादि-अनंत स्वभाववाले सभी पदार्थ सघनरूप से भरे हुए हैं। उन षट् प्रकार के सभी पदार्थों को जाननेवाला यह ज्ञायक जीव पदार्थ अपने नूर से परिपूर्ण है और संसार में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - इन चार प्राणों के कारण हाजिर हजूर है, सदा ही उपस्थित रहनेवाला भगवान आत्मा है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अपनी अचिंत्य ऐसी स्व-पर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा द्वारा जीव ही जानता है। - इसमें महासिद्धान्त है। स्वयं द्रव्य-गुणपर्यायस्वरूप है और परपदार्थ परद्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप हैं - जीव
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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